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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। अर्थ-अनन्त ( अनन्तानन्त ) परमाणुओंकी एक वर्गणा होती है । और अनन्त वर्गणाओंका नियमसे एक समयप्रबद्ध होता है । ताणं समयपबद्धा सेढिअसंखेजभागगुणिदकमा । णंतेण य तेजदुगा परं परं होदि सुहमं खु ॥ २४५॥ तेषां समयप्रबद्धाः श्रेण्यसंख्येयभागगुणितक्रमाः । ___ अनन्तेन च तेजोद्विका परं परं भवति सूक्ष्मं खलु ॥ २४५॥ अर्थ-औदारिक वैक्रियिक आहारक इन तीन शरीरोंके समयप्रबद्ध उत्तरोत्तर क्रमसे श्रेणिके असंख्यातमे भागसे गुणित हैं । और तैजस तथा कार्मण अनन्तगुणे हैं । किन्तु ये पांचो ही शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं । भावार्थ-औदारिकसे वैक्रियिकके और वैक्रियिकसे आहारकके समयप्रबद्ध श्रेणिके असंख्यातमे भाग गुणित हैं। किन्तु आहारकसे तैजसके अनन्तगुणे और तैजससे कार्मणशरीरके समयप्रबद्ध अनन्तगुणे हैं । इस तरह समयप्रबद्धोंकी संख्याके अधिक २ होनेपर भी ये पांचो शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म २ हैं। औदारिकादिक शरीरोंके समयप्रबद्ध और वर्गणाओंका अवगाहनप्रमाण बताते हैं । ओगाहणाणि ताणं समयपबद्धाण वग्गणाणं च । अंगुलअसंखभागा उवरुवरिमसंखगुणहीणा ॥ २४६ ॥ अवगाहनानि तेषां समयप्रबद्धानां वर्गणानां च । _ अङ्गुलासंख्यभागा उपर्युपरि असंख्यगुणहीनानि ॥ २४६ ॥ अर्थ-इन शरीरोंके समयप्रबद्ध और वर्गणाओंकी अवगाहनाका प्रमाण सामान्यसे अंगुलके असंख्यातमे भाग है; किन्तु आगे आगेके शरीरोंके समयप्रबद्ध और वर्गणाओंकी अवगाहनाका प्रमाण क्रमसे असंख्यातगुणा २ हीन है। इस ही प्रमाणको माधवचन्द्र विद्यदेव भी कहते हैं । तस्समयबद्धवग्गणओगाहो सूइअंगुलासंख-। भागहिदविंदअंगुलमुवरुवरि तेण भजिदकमा ॥ २४७ ॥ तत्समयवद्धवर्गणावगाहः सूच्यङ्गुलासंख्य-। भागहितवृन्दाङ्गुलमुपर्युपरि तेन भजितक्रमाः ॥ २४७ ॥ अर्थ-औदारिकादि शरीरोंके समयप्रबद्ध तथा वर्गणाओंका अवगाहन सूच्यङ्गुलके असंख्यातमे भागसे भक्त घनाङ्गुलप्रमाण है। और पूर्व २ की अपेक्षा आगे २ की अवगाहना क्रमसे असंख्यातगुणी २ हीन है । १ इस गाथाकी संस्कृतव्याख्या श्रीमदभयचन्द्रसूरीने और हिन्दीभाषा टीका विद्वद्वर्य श्रीटोडरमल्लजीने की है इसलिये हमने भी इसको यहांपर लिख दिया है। किन्तु केशववर्णी टीकामें इसकी व्याख्या हमारे देखनेमें नहीं आई है। गो. १३ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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