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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । विस्रसोपचयका स्वरूप बताते हैं । जीवादो णंतगुणा पडिपरमाणुम्हि विस्ससोबचया। जीवेण य समवेदा एकेकं पडि समाणा हु ॥ २४८ ॥ जीवतोऽनन्तगुणाः प्रतिपरमाणौ विस्रसोपचयाः। जीवेन च समवेता एकैकं प्रति समाना हि ॥ २४८ ॥ अर्थ-पूर्वोक्त कर्म और नोकर्मकी प्रत्येक परमाणुपर समान संख्याको लिये हुए जीवराशिसे अनन्तगुणे विस्रसोपचयरूप परमाणु जीवके साथ सम्बद्ध हैं । भावार्थजीवके प्रत्येक प्रदेशोंके साथ जो कर्म और नोकर्म बंधे हैं, उन कर्म और नोकर्मकी प्रत्येक परमाणु के साथ जीवराशिसे अनन्तगुणे विस्रसोपचयरूप परमाणु सम्बद्ध हैं। जो कर्मरूप तो नहीं हैं किन्तु कर्मरूप होनेकेलिये उम्मेद वार हैं उन परमाणुओंको विस्रसोपचय कहते हैं। कर्म और नोकर्मके उत्कृष्ट संचयका खरूप तथा स्थान बताते हैं । उक्कस्सटिदिचरिमे सगसगउक्कस्ससंचओ होदि । पणदेहाणं वरजोगादिससामग्गिसहियाणं ॥ २४९ ॥ उत्कृष्टस्थितिचरमे स्वकस्वकोत्कृष्टसंचयो भवति ।। पञ्चदेहानां वरयोगादिस्वसामग्रीसहितानाम् ॥ २४९ ॥ अर्थ-उत्कृष्ट योगको आदि लेकर जो २ सामग्री तत्तत्कर्म या नोकर्मके उत्कृष्ट संचयमें कारण है उस २ सामग्रीके मिलनेपर औदारिकादि पांचो ही शरीरवालोंके उत्कृष्टस्थितिके अन्तसमयमें अपने २ योग्य कर्म और नोकर्मका उत्कृष्ट संचय होता है । भावार्थ-स्थितिके प्रथम समयसे लेकर प्रतिसमय समयप्रबद्धका बंध होता है, और उसके एक २ निषेककी निर्जरा होती है । इस प्रकार शेष समयोंमें शेष निधेकोंका संचय होते २ स्थितिके अन्त समयमें आयुः कर्मको छोड़कर शेष कर्म और नोकर्मका उत्कृष्ट संचय होता है । यह संचय उत्कृष्ट योगादिक अपनी २ सामग्रीके मिलनेपर पांचो शरीरवालोंके होता है। उत्कृष्ट संचयकी सामग्रीविशेषको वताते हैं । आवासया हु भवअद्धाउस्सं जोगसंकिलेसो य । ओकढुक्कट्टणया छच्चेदे गुणिदकम्मसे ॥ २५० ॥ आवश्यकानि हि भवाद्धा आयुष्यं योगसंक्लेशौ च । अपकर्षणोत्कर्षणके षट् चैते गुणितकर्माशे ॥ २५० ॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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