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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अपेक्षा एक समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त काल है । यह काल एक जीवकी अपेक्षासे है। किन्तु नाना जीवोंकी अपेक्षा आठ अन्तर मार्गणाओंको छोड़कर वाकी निरन्तरमार्गणाओंका सर्व काल है। योगप्रवृत्तिका प्रकार बताते हैं । वेगुधियआहारयकिरिया ण समं पमत्तविरदम्हि । जोगोवि एककाले एक्केच य होदि णियमेण ॥ २४१॥ वैगूर्विकाहारकक्रिया न समं प्रमत्तविरते । योगोऽपि एककाले एक एव च भवति नियमेन ।। २४१ ॥ अर्थ-छठे गुणस्थानमें वैक्रियिक और आहारक शरीरकी क्रिया युगपत् नहीं होती। और योग भी नियमसे एक कालमें एक ही होता है । योगरहितका वर्णन करते हैं। जेसिं ण संति जोगा सुहासुहा पुण्णपावसंजणया। ते होंति अजोगिजिणा अणोवमाणंतबलकलिया ॥ २४२ ॥ येषां न सन्ति योगाः शुभाशुभाः पुण्यपापसंजनकाः। ते भवन्ति अयोगिजिना अनुपमानन्तबलकलिताः ॥ २४२ ॥ अर्थ-जिनके पुण्य और पापके करणभूत शुभाशुभ योग नहीं हैं उनको अयोगिजिन कहते हैं । वे अनुपम और अनन्त बल करके युक्त होते हैं। शरीरमें कर्म नोकर्मका विभाग करते हैं । ओरालियवेगुवियआहारयतेजणामकम्मुदये । चउणोकम्मसरीरा कम्मेव य होदि कम्मइयं ॥ २४३ ॥ औरालिकवैगूर्विकाहारकतेजोनामकर्मोदये । ___ चतुर्नोकर्मशरीराणि कर्मैव च भवति कार्मणम् ॥ २४३ ॥ अर्थ-औदारिक वैक्रियिक आहारक तैजस नामकर्मके उदयसे होनेवाले चार शरीरोंको नोकर्म कहते हैं । और कार्मण शरीर नामकर्मके उदयसे होनेवाले ज्ञानावरणादिक आठ कर्मों के समूहको कार्मण शरीर कहते हैं। औदारिकादिकोंकी समयप्रबद्धकी संख्याको बताते हैं । परमाणूहिं अणंतहिं वग्गणसण्णा हु होदि एक्का हु। ताहि अणंतहिं णियमा समयपवद्धो हवे एको ॥ २४४ ॥ परमाणुभिरनन्तैर्वर्गणासंज्ञा हि भवत्येका हि । ताभिरनन्तैर्नियमात् समयप्रवद्धो भवेदेकः ॥ २४४ ॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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