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________________ १८ वीरस्तुतिः । भावधर्म तो दान धर्म है ही भाव प्रवृत्तिको रोक कर करुणा पैदा करनेका नाम है । तथा जीव और अजीवकी अप्रमत्तयोगसे रक्षाकरना भाव है, वहां भी सवको भावकी दृष्टिसे अभयदान ही मिलता है । अतः प्राणीरक्षाका नाम ही भाव या भावशुद्धि है। क्या साधु भी दान देता है ? जैन मुनि भी प्रतिदिन उपदेशदान, ज्ञानदान, शिक्षादान, रूढिच्छेदक शिक्षा दान देकर मानव समाजपर महान् उपकार करते हैं । इसपर लोक कभी यह भी कह देते हैं कि साधुको अन्नदाता न कहकर दानी या राजाको ही अन्नदाता कहना चाहिए । साधु क्या कभी किसीको रोटी पानी दे सकता है ? मगर इतना तो अवश्य समझ लेना चाहिए कि क्या भोजन अन्न ही हो सकता है ? और कोई वस्तु नहीं, क्या अनसे ही तृप्ति होती है ? यदि सच पूछा जाय तो आत्माकी खुराक अन्न पानी नहीं है । यह तो परवस्तु तथा शरीरको पोषण करनेवाली पौद्गलिकवस्तु है । और आत्माकी निजी खुराक तो उसका ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप, सम, संवेद, निर्वेद, अनुकम्पा आस्तिक्य ही है । इस वास्तविक खुराकको प्राप्त करनेपर आत्माकी सदाके लिए तृप्ति हो जाती है । अतः पूज्य मुनिवर्य्य ज्ञान, दर्शन चरित्रकी आत्मीय खुराक देनेके नाते अन्नदावा भी हो सकते हैं। और इस दानके सुन्दर कार्य भारके संचालक मुनि ही होते हैं जोकि दोनों प्रकारसे निर्द्वन्द्व है।। शील, तप और भाव गुप्त रीतिसे दानमें ही छुपे हुए हैं । अत एव चारों धर्मोमें पहले दानको प्रमुखस्थान प्राप्त है । परन्तु दान, शील, तप भी भावके सद्भावसे अर्थात् पवित्रमावरूपी सुन्दरलहरके आनेपर सफल हो सकते हैं अन्यथा नहीं। धर्मरत चतुर्विध अमूल्य धर्मरत्न पाकर श्रेष्ठकुलकीप्राप्ति, समस्त इन्द्रियादिक की अनुकूल सामग्री युक्त मानवका कर्तव्य है कि वह अनेकान्तवादकी शैलीको समझकर जिनेन्द्रके धर्मतत्वका आश्रय पाकर माठकर्मरूप पदोंको तोड़नेका प्रयत्न करे। कर्म नाश करनेकी कसोटी___ कोका नाश त्याग, वैराग्य, सयम, नियम, तपकी अनिमें आत्माते इस
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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