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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभापान्तरसहिता कार होता है जैसे अमिमें सुवर्णका मल नाश होता है अतःउपरोक्त साध को साधकका कर्तव्य है कि उन्हें समझनेकेलिए सर्वज्ञप्रभुका उपदेश सुतना चाहिए। और आप्तका रहस्य जानना चाहिए । यह निस्सदेह है कि आप्त अठारह दोषों से रहित होते हैं । वे चार घनघातिक कर्म क्षय करके अनन्त चतुष्टय अर्थात् अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और वह अनन्तसुख दहावस्थामें भी प्राप्त कर सकते हैं। वे साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप बार धर्मतीर्थ स्थापन करनेके नाते तीर्थकर कहलाते हैं । और धर्मका आद्य चयन करनेसे तथा अनन्त विभूति प्राप्त करनेपर वे असंख्य देव और इन्द्रकी नेवा के योग्य होते हैं अतः अर्हन भी हैं। और इस वर्तमान अवसर्पिणीकालके चतुर्थ-भारकमे हमारे इस भारत वर्ष २४ अर्हन हो गए हैं। जेनमें अन्तिम अर्हन् महावीर प्रभु हुए हैं। वीर प्रभुकी स्तुति ज्ञातृपुत्र महावीर प्रभुका हमपर पूर्ण उपकार है । उनके उपकारों का भूलजाना कृतघ्नता है। उन्हें निर्वाण हुए यद्यपि २४६५ वर्ष होगए हैं तथापि उनका अनुकरण करनेके लिए उनके गुणोंका स्मरण करना, तथा उनकी स्तुति करना हमारा परम कर्तव्य है, अत. आज उनकी स्तुतिरूप व्याख्या करनेकेलिए प्रयत्नशील हुआ हूं। उनकी अनेक स्तुतिएँ और मेरा असामर्थ्य___ तत्वके अध्येताओंमे मुख्य विद्वानोंने उनके अनन्तगुणोंका अनेक उत्तम शब्दोंमें वर्णन किया है, परन्तु में भी अपने सम्यग्दर्शनके वलसे कुछ स्तुति करूं मुझे ऐसी सूझ पैदा हुई है। यद्यपि मुझमें उन विद्वानों जैसी प्रतिभा तो नहीं, मगर मेरा उत्साह और भकिकी निर्भरता मुझसे वलात्कार प्रेरणा कर रही है। कारण जिस रास्तेसे गरुड अपनी चण्डगतिसे उडकर निकल गया हो क्या उसके पीछे एक छोटीसी तितलीको जानेकी इच्छा नहीं होती ? अवश्य होती है। इसी प्रकार अल्पज्ञप्रायः मैं भी मानसोत्सुकता से भरपूर होकर जातपुत्र महावीर खामीकी स्तुति 'वीरस्तुति' सूत्रकृताग नामा सूत्रके छठवें अध्यायकी व्याख्याके बहाने अवश्य करसकता हूं। मुझे आशा है कि उसमें मुझे सफलता
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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