SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता दान धर्म की विशेषता- . दानको सवसे प्रथम इसलिए कहा है कि यह दान धर्म पिछले तीन भेदोंमे भी समाया हुआ है, लोकोंमें इसलोक, तथा परलोककी अपेक्षासे दान देनेकी प्रणाली सबसे पुरानी है, श्रीमान् तीर्थंकर भगवान् सबसे पहले एक वर्ष दान देकर फिर दीक्षा लेते हैं। शीलमें भी दान धर्मका समावेश- शील धर्ममें भी दानधर्म ज्योंका त्यों समाया हुभा है, क्योकि ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करनेपर असख्य द्वीन्द्रिय, और असंख्य सम्मूछिम पंचेन्द्रिय जीवोंको तथा नवलाख गर्भजपंचेन्द्रिय जीवोंको ब्रह्मचर्य पालन करनेसे प्रतिवार अभयदान मिलता है। इतर शास्त्रकारोंने भी इसका बडा माहात्म्य लिखा है।* - शील व्रतको स्वीकार करके वीर्य (आत्मशक्ति) का रक्षण करता हुआ गर्भादिके जन्ममरण सबंधी कष्टोंसे मुक्त होजाता है, और मानो वह अपने को भी अभयदान देता है । इससे स्पष्ट सिद्ध है कि शीलमें भी दान ही गर्मित है। तपमें भी दानधर्मका अन्तर्भाव शीलकी तरह तपश्चरण करने में भी दानधर्मकी आराधना छुपी हुई है। यह सब जानते है कि छ. कायकी विराधना (हिंसा या आरंभ) के विना भोजनका बनना असंभव है। परन्तु सावक उपवासादि तप करनेपर इच्छाओंको रोकतेहुए छ कायका आरंभ रोककर उस दिन अनन्त जीवोंको अभय दान देता है, अतः तप करनेसे भी दान धर्मका अनायासही पालन हो जाता है। * एकरात्रोषितस्थापि, या गतिब्रह्मचारिणः ।। न सा ऋतुसहनेण, प्राप्तुं शक्या युधिष्ठिर! ॥ (मार्कण्ड, ऋषिः) भावार्थ-एक रात भर ब्रह्मचर्य पालन करने से भी जो उत्तम गति तथा श्रेष्ठ फल उस ब्रह्मचारी को मिलता है वह हे युधिष्ठिर ! हजार यज्ञोसे भी अप्राप्य है। वीर.२
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy