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________________ वीरस्तुतिः। घ, आगमृच्छतीति, प्राप्नोति वेति, आग, आ-ऋ गतावण वेति आगारं,गृहमस्यास्तीत्यागारी, ते। आगारिणः, क्षत्रियादयश्चेति भावः । परतीर्थिकाः परमतावलम्यिनः शाफ्यादयश्चेति वा ते सर्वेऽपि, किं तदिति दर्शयति, स को योऽसावेनं धर्मम् । आगा. रानागारविच्छिन्नमाहोक्तवान् । धृ धारणे धातौ मन्, “स्थाद्ध. ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृष" इत्यमरः। 'वत्थुसहावो धम्मो 'यतोऽभ्युदयो निःश्रेयसी स धर्मः,' दुर्गतौ प्रपततांप्राणिनां धारणाद्धर्म रक्षकमेकान्तहितमाहोक्तवानिति । किंभूतं धर्ममनीदृशमतुलम् । कयोकवान् ? साधुसमीक्षया समतयेति भावः ॥१॥ अन्वयार्थ-(समणा) मिक्षु (माहणा) ब्राह्मण (य) और (अगा. रिणो) श्रद्धाल गृहस्थ (य) तथा (परतित्थिया) और और जैनतरमतावलम्बी (पुच्छिस्सु) पूछेगे कि-जिन्होंने ( साहुसमिक्खयाए) अच्छी तरह खाभाविक ज्ञानद्वारा (गंतहियं) सब प्रकारसे कल्याण और उद्धार करनेवाला (मणेलिस) उपमा रहित (धम्म) आत्म-धर्म (आहु) कहा है (से) वे (केइ) कौन थे?॥१॥ भावार्थ-आर्य सुधर्माचार्य भगवानसे उनके सदैव समीपमें रहनेवाले आयुष्मान् जंवू शिष्यने पूछा कि-हे मार्य। संसारसमुद्रसे पार करनेवाला, एकान्त हितकारी एवं अनुपम आत्म-धर्म किसने प्रतिपादन किया है ? मुझसे इस प्रकार अनेक भिक्षु-गृहस्थ एवं अन्यान्य-मतवालोंने प्रश्न किया है ॥१॥ भाषाटीका-इस संसाररूपी गहन वनमें घूमते फिरते प्राणिोंक लिए दश दृष्टान्तोंसे मनुष्यजन्मका मिलना अत्यन्त कठिन है, इसके अतिरिक आर्यदेश [आर्य भोजन, आर्य वृत्ति, आर्य वेशभूषा, आर्य पडौस, आर्य सहवास, आर्य भाषा,] उत्तम कुल, लम्बा आयु, आरोग्य शरीर, समस्त इन्द्रियोंकी इच्छानुकूल सामग्रियोंका संयोग मिलना तो और भी कठिन है, परन्तु श्रीवीतराग भगवान्के धर्ममें प्रवृत्त होना सबसे अधिक मुश्किल है, और जगत्के जीवोंको सर्वज्ञोक 'धर्म ही कल्याण और मंगलका करने वाला है । इसी भाव औषधके अनुपानसे शरीर और मन सम्बन्धी कर्म रोग नाश होते हैं, और वह धर्म ज्ञातपुत्रमहावीर प्रभुने चार प्रकारका प्रतिपादन किया है। जो कि-दान, शील, तप और भावसे पहचाना जाता है।
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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