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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३२१ पूर्णगुणविग्रह आत्मतन्त्रो, निश्चेतनात्मकशरीरगुणैश्च हीनः। आनन्मात्रकरपादमुखोदरादिः सर्वत्र च त्रिविधमेदविवर्जितात्मा ।। आत्मतन्त्र अर्थात् मात्र आत्म-खरूप निर्दोष है। पूर्णगुण विग्रह है । पुनः जडात्मक शरीर और गुणसे मिन्न है। इस आत्म खरूपके हाथ, पैर, मुख, उदर इत्यादि अवयवोंकी कल्पना करने पर मात्र आनन्द ही है अर्थात् सम्पूर्ण आनन्दमय भेद भाव रहित है। आत्म-तत्वके अवयवोंसे श्लोकमें की गई कल्पनामें केवल आनन्द ही इसके अवयव हैं। यह स्पष्टतासे समझमें आ जाता है। इस आत्म-खरूपमें जन्म, जरा और मृत्यु रूपी मेद नहीं है। उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय रूप निविध मेदसे यह आत्म-स्वरूप भिन्न है। जैन कहता है कि-निश्चय नयसे तो आत्मा अकर्ता ही है । सांख्य शास्त्र कहता है कि"अहंकारः कर्ता न पुरुष ।" कर्ता, धर्ता अहंकार है पुरुष नहीं, अर्थात् आत्मा कुछ नहीं कर्ता, प्रत्युत अकर्ता है । जैन कहता है कि-"ईश्वर सर्वज्ञ होता है, तथा उसमें राग द्वेष आदि कुछ भी नहीं हैं। योग शास्त्र कहता है कि-"क्लेशकर्मविपाकाशयरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः।" क्लेश, कर्म, विपाकके आशयोंके साथ असस्पृष्ट-अलिप्त है, वही पुरुष विशेष पुरुषोत्तम और ईश्वर है यानी ईश्वरको राग द्वेष क्लेश कर्मविपाक नहीं छू सकते। “तत्र सर्वज्ञवीज" उस ईश्वरमें सर्वज्ञत्व होता है। आत्मा अनन्त तत्व रूप है। वेदान्त कहता है कि-"सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म।" ब्रह्म खरूपमें पाप, पुण्य, सुख या दुख नहीं है । पुनः वेदान्त कहता है कि-"न पापं न पुण्यं न दुःखं सुखं न ।, चिदानन्दरूपं शिवोऽहं शिवोऽहं ॥ “मेरा आत्म-खरूप शिव है, और उस शिवखरूप आत्मामें पाप, पुण्य, सुख दुख नहीं है, क्योंकि वह सच्चिदानन्द रूप है। जैन कहते हैं कि केवलज्ञानी यहां ही मोक्षका अनुभव करते हैं । इसीसे मिलता जुलता स्वामीनारायण मत प्रवर्तक श्री सहजानन्द खामीका भी यही मत है कि-'अक्षर धाम यहीं है, आत्मा स्वयं अक्षर खरूप है । जो आत्माको यहाके लिये भी अक्षरधाम समझता है उसीकी समझ सच्ची है, और जो अक्षरधामको किसी अन्य स्थल आकाशादिमे समझते हैं उनकी समझ मिथ्या है। प्रणामीपंथ अर्थात् खीजडापंथ प्रवर्तक महेरात ठाकुर तथा श्री देवचन्द्रजी वीर. २१
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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