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________________ ३२२ वीरस्तुतिः। , अपनी सम्प्रदायको निजानन्द सम्प्रदाय कहते हैं । इस दृष्टिसे देखनेपर पता चलता है कि भारतके धर्मात्मा पुरुषोंका सिद्धान्त 'आत्मानन्दके । पानेका ही है । मुहम्मद साहव भी यही कहते हैं कि जगत्में जो भी कुछ चैतन्य प्रतीत होता है वह खुदाकी रवानी है, खुदा निरंजन, निराकार, तेजोमय और सर्वशक्तिमान् तथा सर्वज्ञ है। मोमिन तो कृपालु खुदाको अपने पास ही देखते हैं। खुदाका अर्थ भी खुद ही होता है। जिसिसक्राइस्टका भी यही उपदेश है कि चौथे आसमानपर प्रभु विराजमान हैं। वह प्रभु भक्तोंका आत्मा है, और, परम , भक्त उस प्रभुको प्राप्त करते हैं। अखिल भूमण्डलमें सर्वोत्कृष्ट कीर्तिको पानेवाले वुद्धदेव भी स्पष्ट कह गये हैं कि प्रेम ही आत्मा है। अत: जगत्के प्रत्येक प्राणीमें अमेद प्रेम रक्खो। तत्त्वज्ञानकी दृष्टिसे देखा जाय तो जैन, वेदान्त योग, सांख्य, वौद्ध आदि सव एकताका ही अनुभव करते हैं। एकता पानेके लिये अर्थात् आत्मानन्दमै अभिवृद्धि करनेके लिये साधनोंको भिन्न मिन धर्म मीमांसकोंने भिन्न-भिन्न देश कालमें भिन्न-भिन्न पद्धतिसे समझाया है । अतएव वहिदृष्टिसे देखा जानेपर उन मतोंकी क्रियाओंमें , मेद जान पडता है । तथापि उन क्रियाओंका समन्वय किया जाय तो वे मेद भी अमेद भाव भजने लगते हैं। जैन जिसे पॉच महाव्रत कहते हैं, वौद्ध उन्हें पाच शील कहते हैं, और योगी उन्हें पाच यम कहते हैं। वेदान्तके शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समान भी ऐसे ही हैं। परमहंसोंके वर्तन करने योग्य नियम भी अन्तमें एक ही हैं। प्रत्येक धर्मके नीति, दया, परोपकार, प्रेम आदिके सामान्य और सर्वमान्य नियम भी गृहस्थ धर्ममें समानता तथा उपयोगिताका उपभोग करते हैं। समतादि वैराग्यके लक्षण भी सवमे समान रूपसे ही पाये जाते हैं । ज्ञानी पुरुषोंके वर्तावकी ओर दृष्टि डालते हुए जैनोंका वर्ताव "मित्ति मे सव्व भूयेसु" सव प्राणिओंके साथ मित्रता अर्थात् समान भाव रखना चाहिये न्यूनाधिक न होना चाहिये । वेद भी कहता है कि"मित्रस्य चक्षुपा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।" 'सवको मित्रकी दृष्टिसे देखना चाहिये।' 'आत्मवत्सर्वभूतेपु' ज्ञानी पुरुप अपनी आत्माके समान सब जीवोंको देखते हैं। देह मीमांसकोंकी तरफ दृष्टि डालनेपर जैन मुख्य
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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