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________________ १७० , , . , वीरस्तुतिः ।, जन्म प्राप्त करीने पण असत्य बोले छे, ते ससार रूपी सागरनो पार केवी रीते पामी शके ?" "जेनां नाक-कान-हाथ, कपायेला होय, रूप रगर्नु नाम पण न होय, दरिद्री तेमज रोगी' होय, कुल-जाति अने वर्ण थी हीन होय, तो थयु ? तेनु तो भूषण सत्य छ, सत्यथी पवित्र तेमज सुखी बनी शके छे, तेनी शोभा सत्यथी छे ।" "जे पुरुप असत्य-कालिमाथी मलिन छे, तेनो साथ पाप रूपी-काळाशना भयथी कोई पण धर्मज्ञ पुरुष स्वप्नमां पण करतो नथी।" “जूठानी संगतिथी साचो पण कलंकित थाय छे, जेम मेला लूगडानी संगतिथी खच्छ अने निर्मळ गंगाजलने पण दडर्नु प्रहार सहवु पडे ।" "पुत्र-खजन-स्त्रीधन तेमज मित्रो विमुख बने, वा चाल्या जाय, तेमज प्राणनाश थाय छतां असत्य न बोलवु जोइए। इत्यादि वचनामृतोनुपान करी जे कोई पाप रहित तेमज श्रेष्ठ सत्य बोले छे, ते जगत् प्रधान पुरुष छ ।” तपमा श्रेष्ठ तप कयो? सत्यनी पेठे सर्व प्रकारना इच्छा निरोध तपमां नव विधि ब्रह्म-गुप्तिए गुप्त एवो ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ छ । सुन्दर स्त्रीओना मनोहर अगोने जोईने तेनी साथे रमण करवानी जे इच्छा चित्तमा उत्पन्न थायछे, तेने त्यागी देवी, अथवा वेद नामे नो-कषायना तीव्र उदय थी मैथुन सेवननी जे इच्छा उत्पन्न थाय छे तेनो नाश करवो ए ब्रह्मचर्य व्रत छ । तेने स्पष्ट करवा माटे सत्पुरुषो कहे छे के हे कामी-पुरुप ! अनुपम-सहज-परमतत्व रूप निज खरूपने छोडीने अति सुन्दर स्त्रीजनोना गरीर आदिना रूपने मनमा शा माटे याद करे छ, अथवा तेना मोहमा शा माटे फसाय छे ।। ___ अब्रह्मचर्यना दोष-स्त्री सभोगथी सन्ताप थाय छे, पित्त वधे छे, काम ज्वर उत्पन्न थईने शरीरनु नाश करे छे, हिताहितने भुलावी दे छे, शरीर नि.सत्व बनी जाय छे । तृष्णाना बंधनमा फसाई पडे छे, तेथी कामेच्छा अने ज्वरमा जरा पण अन्तर नथी। आ दोषो जाणीने जो सर्वथा शीलनुं पालन शक्य न लागे तो गृहस्थे पोतानी विवाहित पत्निमा सन्तोष राखवो, कारणके आ प्रतिज्ञा थी पण अनेक प्रकारनी इच्छानु मर्दन थाय छे, कथु पण छे केखपनिमा सन्तुष्ट रहेनार, अन्य स्त्री माननी क्यारेय पण इच्छा न करनारमा पण सुदर्शनशेठनी पेठे अद्भुत प्रभाव उत्पन्न थाय छे, तो पछी सर्वांशे ब्रह्मचर्य पाळनार ब्रह्मचारीना प्रभावनी तो वातज शी? एटले तेनो प्रभाव अवर्ण्य छे अने अकथनीय ! पर पुरुष भले रूपमा, ऐश्वर्यमा, कळामा, गमे तेटलो आगळ
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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