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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १६९ "यम-नियमादि व्रतोनो समूह एक मात्र अहिंसानी रक्षाने माटेज कह्यो छे, अहिंसा व्रत जो असत्यथी दूषित होय तो ते उच्चपद कदी पण प्राप्त न करी शके, असत्य वचन साथे अहिंसाचं पालन अशक्य छ।” “जे वचन जीवोनुं हित करनारु होय ते असत्य छता सत्य छे । अने जे वचन पाप सहित हिंसा रूप कार्यनी पुष्टि करे छे, ते सत्य छता असत्य छ निन्छ छे।" "जे साधक अनेक जन्मोना दु खोनी शान्ति अर्थे तप करे छे, ते निरन्तर सत्यज बोले छे, कारणके असत्य बोलनारने साधकपणु संभवतुं नथी ।" "जे वचन सत्य होय छे, करुणाथी' भरपूर होय छे, अविरुद्ध होय छे, आकुलता रहित होय छे, असभ्य न होय, इन्द्रिय विकारोने पुष्ट करनार न होय, गौरव वधारनार होय, कोईने हलका पाडनारुं न होय, तेज वचन शास्त्रमा प्रशंसनीय गण्डे छ ।” “निरन्तर मौनतुं सेवन कल्याणकारी थाय छे, जो बोलवानी जरूर पडे तो सत्य-प्रिय-तेमज हितकर वोलवू जोइए।" "पण दुष्ट चरित्रीना मुखमा वाणी क्रूर असत्यं वाणी रूपी नागण रहे छे, के जे आखा जगत्ने दुखी करे छे।” “जे वात सदेह युक्त होय, पापरूप होय, दोष सहित होय, ईर्षाने वधारनारी होय, ते वीजा ना पूछवा छता पण न कहेवी ।" "मर्ममेदी, मनने पीडा उपजावनार, स्थिरता नाशक, विरोध करावनार, तेमज दया रहित वचनो प्राण जाता पण न बोलवा ।" "ज्या धर्मनो नाश थई रह्यो होय, चारित्रने नुकसान पहोंचतु होय, देशनी खतन्त्रता नाश पामती होय, समीचीन सिद्धान्तनो लोप थतो होय, त्या देशवर्म-तेमज जातिनी उन्नति खातर वगर पूछ्ये पण विद्वानोए बोलवू जोइए, ते समये मौन धारण करणे योग्य न कहेवाय ।" "जे वाणीना श्रवणथी जीवो मोह मुग्ध वनी जाय, सन्मार्ग भूली जाय, साम्प्रदायिकता अने पक्ष-पात आवी जाय, वाडावदीमा फसावनारी ते वाणी नथी, पण सापणी छे, कारण, के तेना श्रवण मात्रथीज प्राणी उत्तम मार्गने छोडी कुमार्गे जाय छे।" "मनोहर वाणी जेटलं सुख आपे छे तेटल सुख चंदन-चन्द्रमा चन्द्रमणी मोतीमालती वगेरे शीतल पदार्थो आपी शकता नथी ।" "अग्निथी दग्ध वन क्यारेक पण लील बनी शके छे, पण वाणीरूपी आगथी पीडित मनुष्य कदी पण प्रफुल्ल वनी शकतो नथी ।" "जे सत्य-वक्ता छ, तत्त्वना स्वरूपने समजे छे सदाचारी छे, तेना चरण स्पर्शथी पृथ्वी पवित्र बने छे, ते.लोकोज़ उत्तम छे, अने जे असत्य वचन बोले छे, ते नीच अने शुद्द छ ।" "जे नीच पुरुष मनुष्य-,
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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