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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १७१ वधेलो होय, पण तेने झरनुं पुतळं समजीने स्त्रीए जेम् सीताजीए रावणने त्यागी दीधो हतो, तेम तेने त्यागी देवो जोइए, जे स्त्रीए मैथुन विकारने जीती लीधा होय ते देवोने पण पूज्य छे अने इच्छनीय छ । मैथुन एटले शुं? मैथुन एटले जोड, प्रकृतिमा स्त्री-पुरुषy जोडं समजवु, बनेनो परस्परनो संयोग, अथवा सभोगने माटे जे भाव विशेष थाय छे, अथवा बने मळीने जे सभोग क्रिया करे छे, तेने मैथुन कहे छे अने तेनेज अब्रह्म कहे छे, तेमा पण प्रमत्तयोगनो सवंध छे। कारणके तेने लीधे जे कई क्रिया करवामा आवे, पछी भले ते परस्पर बे पुरुष अथवा बे स्त्रीओ मळीने करती होय, अथवा अनश क्रीडा आदि का न होय, ते सर्व अब्रह्म छ । जे प्रमत्त दशाने छोडीने क्रिया करे छे, तेने मैथुन कहेवातुं नथी, जेमके पिता-भाई विगेरे पुत्री-अथवा व्हेन आदिने गोदमा लईने प्यार करे छे, ते अब्रह्म कहेवातु नथी, कारण के तेमा प्रमत्त-योग नथी । आ प्रमत्तयोगनी ओछा वत्ता अशे पण निवृत्ति करवामा आवे तो ते ब्रह्मचर्याणुव्रत कहेवाय छे । जेमके कयुं छे के-"माताव्हेन-पुत्री समान परस्त्रीने जाणे, ने पोतानी विवाहिता स्त्रीमा सन्तोष माने, ते चोथु अणुव्रत कहेवाय छ।" "उत्तम पुरुष परस्त्रीने व्याधि समान समजी ने दूरथीज त्यजी दे छे, कारणके परस्त्री तो सदैव दु खोनुं घर छे, अने सुखोने नाश करनार प्रलय काळनी आग समान छ।" "जे स्त्री पोताना पतिने छोडीने परपुरुष साथे रमण करेछे, तेने प्रथम पंक्तिनी निर्लज्ज समजवी जोइए, ज्यारे आ प्रकारना आचरण थी पोतानी स्त्री पर पण विश्वास न रहे तो परस्त्रीनो विश्वास केम राखी शकाय " "परस्त्रीनुं सेवन करनार पुरुषने नरक निगोद मा रखडवानु रहे छे, तेमां कशु सुख तो नथी ज, तेथी मनुष्योए ब्रह्मचर्य व्रतनुं पालन करवु जोईए।" "आ व्रतनु पाळन करनार योगीओ परब्रह्म परमात्मानु ज्ञान पामे तेमज ख-खरूपने अभेद रूपे जाणी शके छे, तेनो अनुभव करी शके छे । तेने धीरवीर पुरुषोज धारण करी शके छे । अल्पसत्ववाळा-शीळरहित-इन्द्रियोना दास-दुवेळ पुरुषो तो खप्नमा पण आनुं समाचरण करी शकता नथी, कारणके ब्रह्मचर्य पण महावत छ ।" "त्रणे जगतमा ब्रह्मचर्य व्रत प्रशंसनीय छ, जे तेनु निर्मल भाव पूर्वक पालन करे छे, ते पूज्यना पण पूज्य छ । जे ब्रह्मचर्य पालनमा अनुरक्त छे ते दश प्रकारना मैथुननो सर्वथा त्याग करे छ।
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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