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________________ वीरस्तुतिः। '. . भाषा-टीका-जिसमें रोग, द्वेषका त्याग हो और ज्ञान पूर्वक त्याग, बैराग्य, संयम, स्वामिमान, सहानुभूति आदि गुण पाए जायें तथा मानव जीवनको उन्नत वनानेकेलिए और संसार में उत्कृष्ट धर्मको प्रकट करनेके लिए प्रभुने उपदेश किया, जो कि-अमेद रूपमें था, और वह धर्म प्राणी मात्रके लिए कहा था। इसकी खयमेव सिद्धिकेलिए उत्कृष्ट ध्यानका आश्रय लिया; उस ध्यानके प्रवल प्रतापसे उस पावन पुरुषको फल स्वरूप केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। इसके अनन्तर मी मन, क्वन, कायके योगोंका निरोधन करनेके कालमें सूक्ष्मकाययोगको रोककर शुक्रध्यानके तीसरे पदको प्राप्त करना आरम्भ किया; जिस स्थितिमें मन और चनके व्यापारको रोक दिया जाता है तथा काययोगका भी आधा भाग रुक जाता है। यह शुक्लध्यानका तीसरा चरण तेरहवें गुणस्थानपर. वर्तमान सूक्ष्म प्रक्रिया रूप होजाता है। . और जिस स्थितिमें मन, वचन, कायकी अप्रतिपाति रूप निवृत्ति होती है वह शुक्ल यानका चौथा पाद है । अर्थात् कर्मरहित केवलज्ञानरूपी सूर्यसे पदार्थोंका प्रकाश करनेवाले सर्वज्ञ भगवान् जव अन्तरमुहूर्त प्रमाण आयु बाकी रह जाता है तव सूक्ष्मकिया अप्रतिपाति नामक शुक्लध्यानके योग्य वन जाते हैं, उस समयकी चेष्टा अचिन्त्य होती है, बादरकाययोगमें स्थिति करके वादरवचनयोग और वादरमनोयोगको वे सूक्ष्मतम करते हैं, पुनः भगवान् काय. योगके अतिरिक्त वचनयोग मनोयोगकी स्थिति करके वादरकाययोगसूक्ष्म करते हैं, तत्पश्चात् सूक्ष्मकाययोगमें स्थिति करके क्षणमात्रमें उसी समय वचनयोय और मनोयोग इन दोनोंका सम्यक् प्रकारसे निग्रह करते हैं, तब यह सूक्ष्म क्रिया ध्यानको साक्षात् ध्यानके करने योग्य बना लेती हैं, और वे वहां एक सूक्ष्म काययोगमें स्थित होकर उसका ध्यान करते हैं । इस तरह प्रभुका यह सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति ध्यान है। और अयोग गुणस्थानके उपान्त्य अर्थात् अंत समयके प्रथम समयमें देवाधिदेवके मुक्तिरूपी लक्ष्मीकी प्रतिबन्धक कर्मोकी प्रकृतिएँ शीघ्रमेव नष्ट होजाती हैं। भगवान् अयोगी परमेष्ठीको उसी अयोगगुणस्थानके उपान्त्य समयमे साक्षात् रूम और निर्मल “समुच्छिन्न क्रिया" नामक चौथा शुक्ल ध्यान प्रकट हो जाता है। भगवान्का यह प्रशस्त और शुक्लसे भी अधिक शुक्लध्यान हैं। लेश्याकी दृष्टिसे महान् शुक्ललेश्य हैं। "लेझ्या आत्मामें पुण्य पापको लिप्त करके जब अपने
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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