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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ९३ जैसा बनालेती है अत. उसे लेश्या कहते हैं," वह दो तरहकी है। प्रवृत्ति और यौगिकी ये दो भेद है । प्रवृत्ति कषायके रंगमें रग लेती है । भावसे असत् परिणति या परपरिणति रूपा है। योग, अविरति, मिथ्यात्व, कषाय, जन्म, कर्म संस्कारोंसे भावलेश्या होती है । जोकि पाप और आस्रवका कारण हैं।" ___ कापोती तीव्र भाव है, नीला तीव्रतर और कृष्णा तीव्रतम भाव है, यह अशुद्ध विचारोंका क्रम है। पीता उस पापकी मन्दताका नाम है, पद्मा मन्दतर है, शुक्ला मन्दतमको कहते हैं; अशुभ भावलेल्या निर्मलताका नाश करती है, शुभभावलेश्या कर्म कालिमाको प्रध्वंस कर देती है। अन्तिम लेश्या सहजानन्द निलेश्य पद देनेमें निमित्त भूत है। कृष्णलेश्या. आत्मा इस दुर्भावके फंदमें पड कर राग, द्वेषके ग्रहसे प्रसा जाता है, परपरिणति और जड पूजाका दुराग्रह इसीसे आता है, मन दुष्ट और म्लान रहता है, अनन्तानु वन्धीके तीव्र क्रोध, मान, माया, लोभ कषायसे ग्रसित होता है, सदैव भावोम निर्दयता बनी रहती है निकल नहीं जाती, यह पापका समाचरण करके उसका कभी पछतावा नहीं करता, यह मांस मदिराका लम्पट होता है, कुत्सित कर्ममें आसकि बनी रहती है। इन लक्षणोंसे समन्वित मनुष्य कृष्णलेश्यायुक्त समझना चाहिए। नीललेश्या जिसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, शोक हो। नृशंसता, क्रूरता, हिंसकता रहती हो, चाण्डाल वृत्ति हो; चोर, मूर्ख, स्तब्ध, औरोंका तिरस्कार करता हो, नीन्दकी अधिकता, कामुकता, मन्दबुद्धि, जडता तथा सत्असत्में अविवेकी हो, महा आरम्भ, महामूर्छा-मोह हो तो समझो कि इसमें नीललेश्या है। कापोतीलेश्या शोक, भय, ईर्षा, मत्सरभाव, औरोंकी निन्दा, अपनी प्रशंसा करना, कोई अपनी स्तुति करे तो प्रसन्न होना, हानिलामको न जानना ख और परमें विपर्यय विवेचना हो, अहंकार-ग्रह ग्रस्त हो; अच्छी, बुरी सब प्रकारकी क्रियाएँ कर डालता हो, अपनी प्रशंसा सुनकर अन्यको सर्चख तक अर्पण कर डालता हो, लडाईमें मरनेकी इच्छा रखता हो, अन्यकी यशः कीर्तिका नाश कर डालता हो, इन लक्षणोंसे कापोतीलेश्या समझनी चाहिए। प्रकारकी क्रिया इच्छा रखता हो अन्यको सर्वस हो, इन ल
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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