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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ९१ वा *गंडमुदकफेनं बुद्बुदं तद्वन्निर्मलं चेति, निर्दोषार्जुनसुवर्णक्च्छुक्लम् , तथा च शंखेन्दुवदेकान्तावदातं शुभं शुक्लं शुक्लध्यानोत्तर मेदद्वयं ध्यायतीति भावः । "गण्डः कपोले, पिटके, दोषजनके, जलबुद्बुदे, इति शब्दार्थचिन्तामणिः" ॥१६॥ ' अन्वयार्थ-[अणुत्तरं] सबसे उत्तम [ धम्म ] धर्मको [उईरइत्ता कहकर भगवान् [अणुत्तर] प्रधान [ झाणवर ] व्युपरत-क्रिया-निवृत्ति नामक ध्यानको [ झियाइ] चिन्तवन करते हैं, अर्थात् [सुसुक्कसुकं ] उत्तम श्वेतवर्ण तरह शुक्लनामक श्रेष्ठ और पवित्र ध्यान जोकि-[अपगंडसुकं ] अर्जुन संज्ञक सुवर्णकी तरह अथवा जलके फेनकी तरह या [ सखिंदु एगंतऽवदातसुकं ] शंख और चन्द्रमाकी तरह एकान्त सफेद है उसका भगवान्ने ध्यान किया ॥ १६ ॥ भावार्थ-भगवान् महावीरने ऐसे धर्मका पूर्ण उपदेश किया है, जोकि समस्त धर्मोमें प्रधान है तथा शुक्लध्यानको धारण किया, वह शुक्नध्यान अर्जुन नामक सुवर्णके समान और जलके फेनकी तरह तथा शंखकी तरह और चन्द्रमाके समान खच्छ है । भगवान् सूक्ष्मकाययोगका निरोध करते हुए शुक्लध्यानके तीसरा मेद-सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक ध्यानका विषय चिन्तवन करते हैं, तथा फिर जवं योगका निरोध करते हैं तब व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यानके विषयको धारण करते हैं ॥ १६ ॥ अत्रोदाहरणं यथा__ वैरिग्रामविघाताय, केपि षट्पुरुषा पुरा । चलिता. समुदायेन, तेष्वेक इदमब्रवीत् ॥ १॥ सवं हन्तव्यमेवात्र, द्विपदं वा चतुष्पदम् ॥ अन्य. प्राह मनुष्याणां वधोऽस्तु पशुमि किमु -॥ २ ॥ तृतीयः प्राह हन्तव्या नरा एव नहि स्त्रियः॥ तूर्येणाभाणि हन्यता, पुरुषेष्वयि सायुधा ॥ ३ ॥ पञ्चमोऽप्याह ये नन्ति ते वध्या सायुधेवपि, षष्ठस्त्वाह विना शत्रून्, घात कार्यो न कस्यचित् ॥४॥ इति मिनं मनस्तषामभूल्लेश्याविशेषतः । ता कृष्णनीलकापोत, तेज. पद्मसिताभिधाः ॥ ५॥ तदेव तारतम्येन, विशुद्धपरिणामतः । येन सर्वे रिपुभ्योऽन्ये, रक्षिताः स हि सत्तम ॥६॥ * गंडो फोटे कपोलमि" इत्यमिधानप्पदीपिका ।
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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