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________________ वीरस्तुतिः। नितम्बदेशे मध्यभाग इत्यर्थः । “मेखला खनबन्धे स्यात्काञ्ची शैलनितम्बयोरिति मेदिनीकोशः" । नन्दनवनमायाति । तथा द्विषष्टियोजनसहस्राण्यधिकान्यतिक्रम्य सौमनसवनम् । ततः षट् त्रिंशत्सहः खाण्यारुह्योल्लंघ्य शिखरे पण्डकवनमिति मेरोश्चत्वारि वनानि । यस्मिन् मेरौ महेन्द्रा त्रिदशालयात् खर्गात्समागत्य रमणीयतमशब्दादिगुणेन रति रमणक्रीडां वेदयन्त्यनुभवन्ति । अतश्चतुर्नन्दनवनाद्युपेतो विचित्रकीडास्थलसमन्वितः स मेरुः ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ-[से ] वह सुमेरु णमे] आकाश को [पुढे] छूकर [चिठ्ठइ ] ठहरा हुआ है, तथा [भूमिवठिए] भूमिको छूकर स्थित है, [] जिसकी [ सूरिया ] सूर्य [अणुपरिवठ्यंति ] प्रदक्षिणा करते हैं, और जो [हेमवन्ने] सोनेके समान परम कान्ति युक्त है, जिसमें [बहु] बहुत अर्थात् चार [नंदणे ] नन्दनादि वन हैं [जंसी] तथा जिसमें [महिंदा ] महेन्द्र आकर [रति] सुखका [वेदयती ] अनुभव करते हैं ॥ ११ ॥ . भावार्थ-वह सुमेरु पर्वत ऊपरके भागमें आकाशको व्याप्त करके तथा नीचे भूमिको स्पर्श करके स्थित है, इसलिए वह ऊर्ध्वलोक-अधोलोक और तिर्यक् लोकको स्पर्श करता है । ज्योतिष्क विमान उसकी प्रदक्षिणा करते हैं। उसका रग सुवर्णकी तरह पीला है। उसके ऊपर चार वन हैं; समान भूमिमें भद्रशाल वन है, उसके पाचसो योजन ऊपर नन्दन वन है, उसके वासठ हजार योजन ऊपर सौमनस वन है, उससे छत्तिस हजार योजन ऊपर पाण्डुक वन है, इस प्रकार वह अनेक क्रीडास्थलासे युक्त है, और उसमें देव तथा देवेन्द्र आकर रति-क्रीडाका अनुभव करते हैं ॥ ११ ॥ . भाषा-टीका-उस सुमेरु पर्वतने ऊर्ध्व लोक-अधोलोक और मनुष्यलोक इस प्रकार तीनों लोकोंके आकाशको छू लिया है । जिसकी तगडीकी जगह सूर्य चाद तथा प्रहगण चारों ओर परिकमा देते रहते हैं । तव वह तफे हुए सोनेकी तरह, चमचमाट करने लगता है। उसके चारों और के बहुतसे वनोंमें चार मुख्य सुन्दर वन हैं । और प्रथम समतल भूमि पर भद्रशाल वन है। उस जगहसे ५०० योजन ऊपर जानेसे मानो उसकी तगडीकी
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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