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________________ पत्नी-वियोग। मिलके भाग्यमें यह सुख केवल साढ़े सात ही वर्पके लिए लिखा था; अधिक नहीं। सन् १८५९ में उसका यह अमूल्य रत्न खो गया। इससे उसे जो हानि हुई वह असह्य थी । पर क्या करे, विवश होकर उसे सहना ही पड़ा । स्त्रीका वियोग होनेपर मिलका विचार हुआ कि मैं सर्वसङ्गका परित्यागकर दुनियाके सब झगड़ोंसे जुदा हो जाऊँ, परन्तु फिर उसने यह सोचकर अपना विचार बदल दिया कि उसकी पत्नी जिस सार्वजनिक सुधारसे प्रेम रखती थी मुझे उसीके विषयमें, अपने एक पहियेवाले रथसे ही, जितना बन सके उतना प्रयत्न करते रहना चाहिए । और यदि वह जीती होती तो मेरे इसी कार्यको पसन्द करती । इस तरह निश्चय करके वह सार्वजनिक सुधारके कामोंमें मन लगाने लगा। संयुक्त ग्रन्थरचना। जब दो मनुष्यों के विचार और कल्पनाओंकी तरङ्गे मिलकर एक हो जाती हैं, जब वे प्रतिदिन प्रत्येक विषयका खूब ऊहापोह करके अनुसन्धान किया करते हैं और जब वे एक ही महत्तत्त्वके आधारसे एक ही प्रकारका सिद्धान्त निश्चित करते हैं, तब इस बातका निश्चय नहीं हो सकता कि अमुक विषयकी कल्पना सबसे पहले किसको सूझी। जिसने उसे अपनी लेखनीसे लिखा हो यदि वह उसीकी कल्पना समझ ली जाय तो भी ठीक नहीं । क्योंकि अकसर ऐसा होता है और यह ठीक भी मालूम होता है कि उन कल्पनाओंको लेखनरूपी शृंखलासे बाँधनेके कार्यमें उन दोनोंमेंसे जिसका प्रयत्न बहुत ही कम होता है उसीका प्रयत्न कल्पनाओंको जन्म देनेके कार्यमें
SR No.010689
Book TitleJohn Stuart Mil Jivan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages84
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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