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________________ उदारता और कृतजता ३१ यदि मैंने पूर्व भव में बुरे कार्य किये हैं, दूसरे जीवों को सताया है और पाप का संचय कर रखा है, तो कोई भी मुझे आराम नही दे सकता । मेरी बहिन का विवाह - सम्बन्ध एक राज घराने में हुआ और मेरा एक कोढ़ी के साथ | यह सब उस पूर्व संचित कर्म का फल है । कर्मों को गति बड़ी गहन है । वह रंक को क्षण भर में राजा वना देती है और राजा को क्षणभर मे रंक बना देती है । इसी को कुदरत का खेल कहते हैं । कहा भी है- 'यह कुदरत की कारीगरी है जनाव कुदरत की कारीगरी देखी कि वह रजकण को आफताब बना देता है और जहां अभी कुछ भी दृष्टि गोचर नहीं होता, वहां पर सब कुछ नजर आने लगता है ! और भी कहा है- "रव का शुक्र अदा कर भाई, जिसने ऐसी गाय चनाई ।" कैसी गाय बनाई ? जिसके शरीर में रक्त-मांस ही था; उसे ही गर्भस्थ शिशु के जन्म लेने के साथ उत्तम, मिष्ट एवं श्वेत दूध बना देती है । इस दूध का निर्माण किसी औषधि के पिलाने से या इंजेक्शन के लगाने से नहीं हुआ । किन्तु यह कुदरत की ही करामात है। कुदरत जानती है कि नवजात शिशु के मुख में अभी दांत नहीं हैं, मसूड़े भी इतने सरल नहीं है कि वह जिससे अपनी खुराक को चबाकर अपना पोपण कर सके । अतः उसने माँ के स्तनों में रक्त को दूध रूप से परिणत कर दिया । यदि यह कुदरत रूठ जाय, तो फिर उसका कोई सहायक नहीं है । सोचते हैं कि यह श्रीपाल और मैनासुन्दरी दोनों ही कर्मों की इस गति से, या कुदरत के इस सेल से भली भांति परिचित हैं । अतः उन्होंने वर्तमान में प्राप्त अपनी दुरवस्था के लिए किसी को दोष नहीं दिया और न अधीर ही हुए । किन्तु हृढ़तापूर्वक कमर कसकर उसका मुकाविला करने के लिए तैयार हो गये । उनका हृदय एक दूसरे के प्रति स्वच्छ है । मैना चाहती है कि तब मैं अपने को कृतार्थ समक्षूंगी, जवकि श्रीपाल को साक्षात् कामदेव के समान सुन्दर और इन्द्र के समान वैभवशाली बना दूंगी । उधर श्रीपाल भी सुकुमारी राजकुमारी मुझ कोढ़ी के पल्ले बांध दी गई है, तो मैं ऐसा प्रयत्न करू कि जिससे इसे किसी भी प्रकार का कष्ट न हो। इस प्रकार दोनों ही एक दूसरे को सुखी बनाने की भावना कर रहे हे और यथासंभव प्रयत्न भी कर रहे हैं । भाई, स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध तभी प्रशंसनीय और उत्तम माना जाता है, जब वे एक दूसरे को सुखी करना अपना कर्तव्य समझें, दोनों के हृदय शुद्ध हो, दोनों में परस्पर असीम प्रेम हो और दोनों हो जब परिवार, समाज, देश और राष्ट्र के प्रति अपना कर्तव्य पालन करने मे जागरूक रहें । ऐसे ही स्त्री-पुरुषों को लक्ष्य में रखकर कहा गया है कि
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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