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________________ રૂ૪૬ प्रवचन-सुधा ऊपर के सारे कमरे देख डाले, पर मित्र को कहीं पर भी नहीं पाया । इतने में ही कपिला ऊपर पहुंची तो उन्होंने कपिला से पूछा बाई; भाई साहब कहां हैं ? वह मुस्कराते हुए बोली -- आपके भाई साहब तो बाहिर गये हुए हैं। आपकी प्रशंसा सुनकर मैं कभी से आपके दर्शनों के लिए उत्सुक श्री, आप सहज में आने वाले नहीं थे, अतः उनकी बीमारी के बहाने से आपको बुलाया है । मैंने जब से रूप-सौंदर्य की प्रशंसा सुनी है, तभी से मैं आपके साथ समागम करने के लिए वैचेन हो रही हूं। कपिला के ऐसे पापमय निर्लज्ज वचन सनकर सदर्शन मन ही मन विचारने लगे---'यहां आकर मैंने भारी भल की है। अव वचने का कोई उपाय करना चाहिए । यदि मैं इसे सीधा नकारात्मक उत्तर देता हूं तो संभव है कि यह हल्ला मचाकर मुझे और भी आपत्ति और संकट में डाल दे और लोग भी यही समझेंगे कि सेठ दुराचारी है, तब तो रात्रि के समय कपिल की अनुपस्थिति में उसके घर आया है ? अतः उन्होंने ऊपर से मधुर वचन बोलते हुए बहुत कुछ समझाने का प्रयत्न किया। परन्तु जब देखा कि यह कामान्ध हो रही है और नग्न होकर मेरी ओर बढ़ती ही चली आ रही है, तब सेठ ने कहा---पुरोहितानीजी, अप्सरा जैसी सर्वांग सुन्दरी आपके सामने होते हुए और स्वयं प्रार्थना करते हुए कोई पुरुषत्व-सम्पन्न व्यक्ति अपने मन को काबू में नहीं रख सकता है । नीति में भी कहा है 'ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्थः' । अर्थात्-स्त्री-भोग का आस्वादी ऐसा कौन पुरुषार्थ-सम्पन्न पुरुप है जो जो कि आप जैसी निर्वसना और विवृतजघना स्त्री को देखकर उसे छोड़ने के लिए समर्थ हो सके ? अर्थात् कोई भी नहीं छोड़ सकता है। किन्तु यदि आप किसी से न कहें. तो मैं सत्य वात कहूं-~-वह बोली ! नही कहूंगी। तब सेठजी बोले---मैं तो यथार्थ मे पुरुषत्व-हीन व्यक्ति हूं। कहने और देखने भर के लिए पुरुप हूं। यह सुनकर कपिला आश्चर्य से चकित होकर बोली-यह आप क्या कहते हैं ? सुदर्शन ने कहा- मैं यथार्थ बात ही कह रहा है। अन्यथा यह संभव नहीं था कि मैं आपकी इच्छा को पूरा न करता । अब तो कपिला को विश्वास हो गया कि सेठ जी यथार्थ में पुरुषत्व से हीन हैं । तब वह निराश होती हुई बोली ---तब आप भी मेरी यह बात किसी से न कहिये । उसकी बात सुनकर सुदर्शन यह कहते हुए वापिस चले आये कि हा, मैं तुम्हारी बात किसी से नहीं कहूंगा। इस घटना के पश्चात् सेठजी ने नियम कर लिया कि आगे से मैं किमी भी व्यक्ति के घर नहीं जाऊंगा।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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