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________________ धर्मकथा का ध्येय ३४५ ____ आज जैन समाज की शक्ति पारस्परिक पन्थवाद में विखर रही है। एक सम्प्रदाय वाले सोचते हैं कि यह तो अमुक सम्प्रदाय का झगड़ा है, हमें इससे क्या लेना-देना है। जब दूसरे सम्प्रदाय पर भी इसी प्रकार का कोई मामला आ पड़ता है, तब इतर सम्प्रदाय वाले भी ऐसा ही सोचने लगते हैं। पर भाइयो यह विभिन्न सम्प्रदाय की बात तो घर के भीतर की है । बाहिर तो हमें एक होकर रहना चाहिए ! क्योंकि हम सब एक ही जैनधर्म के अनुयायी है और एक ही अहिंसा धर्म के उपासक है वात्सल्यगुण के नाते हमारे भीतर परस्पर में प्रेमभाव और सहानुभूति होना ही चाहिए और एक सम्प्रदाय के ऊपर किसी भी प्रकार की आपत्ति आने पर सवको एक जुट होकर उसका निवारण करना चाहिए। सच्चा जैनी कभी भी जैनधर्म और जैन समाज का किसी भी प्रकार का अपमान सहन नहीं कर सकता है। कपिला का जाल हां, तो मैं कह रहा था कि ऐसी अनहोनी बातों को भी यह समय करा देता है, तदनुसार उस कपिला ब्राह्मणी के मन में भी काम-विकार जागृत हो गया और वह सुदर्शन समागम की चिन्ता में रहने लगी ! और उचित अवसर की प्रतिक्षा करने लगी। एक दिन राजा ने किसी कार्यवश पुरोहित को पांचसात दिन के लिए बाहिर भेजा । वापिला ने अपना मनोरथ पूर्ण करने के लिए यह उचित अवसर देखकर दासी से कहा कि तू सुदर्शन सेठ के घर जाकर उनसे कहना - तुम्हारे मित्र पुरोहितजी कई दिन से बीमार हैं और आप को याद कर रहे हैं । दासी ने जाकर सुदर्शन सेठ को यह बात कह सुनाई 1 अपि सुदर्शन सेठ दूसरों के यहां जाया नहीं करते थे, तथापि मित्र की बीमारी का नाम सुनकर उसके यहां जाने का विचार किया और दासी को यह कह विदा किया कि मैं अभी आता हूं। दासी ने जाकर पुरोहितानी को सेठजी के आने की बात कह सुनाई । वह स्नानादि सोलह शृङ्गार करके तैयार होकर सेठजी के आने की प्रतीक्षा करने लगी। इधर सुदर्शन भी सायंकाल होता देखकर भोजनादि से निवृत्त हो मित्र के घर गये। जैसे ही वे मित्र के द्वार पर पहुंचे से ही कपिला ने उनका हाव-भाव से स्वागत किया। सेठने पूछा-वाई, हमारे भाई साहब कहां है और उनकी तवियत कैसी है ? कपिला बोली -वे ऊपर के कमरे में लेट रहे है, तवियत वैसी ही है, आप स्वयं ऊपर चलकर देख लीजिए । सुदर्शन सेठ जैसे ही ऊपर गये, वैसे ही कपिला ने घर का द्वार भीतर से बन्द कर दिया और मन ही मन प्रसन्न होती हुई ऊपर पहुंची। सुदर्शन ने
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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