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________________ ३१२ प्रवचन-सुधा के लिए जगल मे जा रहे हैं । भाई, जिमके पास होगा, तो वह पहिनावेगा ही। यह सुनकर और जानवरो के आभूपणो को देखकर सब वाराती दग रह गये। माता का गौरव हा तो मैं बहिनो से कह रहा था कि जब आपकी मन्तान योग्य और उत्तम गुणवाली होगी और ससार मे उसकी प्रशसा होगी, तो आप लोगो की प्रशसा विना कहे ही हो रही है। क्योकि उनकी जननी तो आप लोग ही हैं। फिर लोग कहते ही हैं कि उस माता को धन्यवाद है कि जिसने ऐसे ऐसे नररत्ल उत्पन्न किये हैं। मौर भी देखो भगवान ने जीवो के तीन वेद बतलाये है-स्तीवेद, पुरुपवेद और नपुसक वेद । इनमे सबसे पहिले स्त्री वेद ही रखा है, क्योकि समार की जननी वे ही हैं। वे ही अपने उदर मे नौ मास तक सन्तान को रखती है और फिर जन्म देकर तथा दूध पिलाकर सन्तान को वडा करती है और सर्व प्रकार से उसका लालन पालन करती हैं। पुरुप तो घर में लाकर पैसा जाल देता है। उसका समुचित विनियोग और व्यवस्था तो आप लोग ही करती हैं। और भी देखो-तीर्थकर भगवान् बालपन से किमी को भी हाथ नही जोडते है, यहा तक कि अपने पिता को भी नहीं। किन्तु माता को वे भी हाथ जोडते है। इन सब बातो से स्त्री का गौरव और बडापन स्वय सिद्ध है। शास्त्रो मे भी मनुष्य गति से मनुष्य के साथ मनुष्यनी, देवगति से देवके साथ देवी और तिर्यग्गति से तिर्यच और तिर्य चिनी दोनो ही ग्रहण किये जाते है। किन्तु व्यापार करने, शासन करने और युद्ध जीतने आदि दुखकारी कठोर कार्यों को पुरुष ही करता है, इसलिए लोक व्यवहार मे उनको लक्ष्य करके वात कही जाती है। इसका यह अभिप्राय नही है कि स्त्रियो की उपेक्षा की गई हैं। अत वहिना को किसी प्रकार की हीनभावना मन मे नही लानी चाहिए और न यह ही सोचना चाहिए कि महापुरुपो ने हमारी उपेक्षा की है। देखो । भगवान ने पुरुषो के समान ही स्त्रियो के सघ,की व्यवस्था की है। साधुओ के समान व्रत धारण करने वाली स्त्रियो का साध्वी सघ बनाया और श्रावक के बतो को धारण करने वाली स्त्रियो का श्राविका सघ बनाया और अपने चतुर्विध संघ मे उन्ह पुरुपो के ही समान वरा-बरी का स्थान दिया है । फिर पुन तो अपने पितृकुल का ही नाम रोशन करता है किन्तु पुत्री तो पितृकुल और श्वसुरकुल इन दा का नाम रोशन करती है। भाई, यह जैन सिद्धान्त है, इसम तो जो वस्तु जैसी है, उसका यथावत् ही स्वरूप निरुपण किया गया है। इसमे कही भी पिनी के माथ कोई पक्षपात नहीं किया गया है।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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