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________________ ३१३ सिंहवृत्ति अपनाइये ! एक समय सादड़ी मारवाड़ में धर्म-सम्बन्धी बात को लेकर विरादरी में झमेला पड़ गया। भाई, जैनियों में फिर के भी बहुत हैं, कभी सम्प भी रहता है तो कभी लड़ाई भी हो जाती है। विरादरी ने एक भाई की अनुचित वात से नाराज होकर रोटी-बेटी का व्यवहार बन्द कर दिया। वह पांच-सात लाख का आसामी था, उसने देखा कि अपनी बिरादरी वालों से पार नहीं पा सकता हं तो पर विरादरी में जाने का अपने दोनों भाइयों के साथ विचार किया। वे तीनों भाई अपनी मां के पास पहुंचे और अपना अभिप्राय मां से कहा । मां ने कहा-अरे छोरो, यह क्या करते हो? लड़के वोले-जब सारी बिरादरी एक ओर हो गई है और हमें जाति-विरादरी से भी वहिष्कार कर दिया है, तव यहां पर हमारा निर्वाह नहीं हो सकता है। तब मां नाराज होकर वोलीयदि विरादरी में तुम लोगों का निर्वाह नहीं होता है, तो तुम लोग मेरे घर से निकल जाओ ! मेरे बेटे कहलाने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है। यदि तुम लोगो ने मेरा दुध पिया है और मेरी सन्तान हो तो मैं जहां खड़ी हैं, वही तुम्हें खड़े रहना होना। अपनी गलती स्वीकार करो और समाज से क्षमायाचना करो। अपने अहंकार के पीछं तुम लोग इस जाति को और इस पतितपावन और विश्व-उद्धारक धर्म को ही छोड़ने के लिए तैयार हो गये हो । तुम्हें अपने वाय-दादों का नाम लजाते हुए शर्म नहीं आती। मां की यह फटकार सुनते ही तीनों लड़कों ने चूं तक नहीं किया और समाज से माफी मांगकर पहिले के समान ही रहने लगे। __बहिनो, यदि आप लोग दृढ़ हैं और अपने धर्म पर कायम हैं तो पुरुपों की मजाल है जो वे धर्म और समाज से बाहिर जाने का विचार भी कर सके । आप लोग यदि धर्मवीर हैं और कर्म शूर हैं तो आपकी सन्तान भी अवश्य ही वीर और धर्मात्मा होगी। घर की मालकिन तो भाप लोग ही हैं। यदि मनुष्य बाहिर के काम-काजका स्वामी है तो आप गृह-स्वामिनी हैं। यदि मनुष्य बाहिर का राजा है तो आप लोग घर की रानी हैं। घर का नाम तो आप लोगों के द्वारा ही रोशन होता है । आचार्यों ने कहा है कि 'गृहिणी गृह्माहुः न कुड्यकट संहतिम् । __ धर्मश्री-शर्म कीत्येककेतनं हि सुमातरः ।। स्त्री को ही घर कहा जाता है, इस ईट, पत्थर और चूने से बने मकान को घर नहीं कहा जाता है। फिर उत्तम माताएं तो धर्म, श्री-शोभा, सुख-शान्ति और कीर्ति को फहराने वाली ध्वजा पताका के समान कही गई है। जिस घर की माताएं सुयोग्य और घर की उत्तम व्यवस्था करने वाली होती
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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