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________________ धर्मादा की संपत्ति २७१ शाह के बंगले पर पहुंचे। मुनीमजी ने नौकर से गेंती-फावड़ा मंगाकर और तलघर का द्वार खुलवा करके वादशाह को रत्नों के ढेर दिखाये । वादशाह एक ही शाह के घर में रलो के ढर देखकर बड़ा चकित हुआ कि जो बाहिर से साधारण सा घर दिखता है, उसके भीतर इतनी अपार सम्पत्ति है, तव औरों के पास कितनी नहीं होगी? फिर पंचों से कहा-भाई. मुझे कोई कीत्तिस्तम्भ नहीं बनवाना है। परन्तु मुझे तो पानी देखना था, सो आज अपनी नजर से प्रत्यक्ष देख लिया है। पंचों ने बादशाह को बतलाया कि यह सब धन-माल सारंगशाह जी का है। इसमें से एक कौड़ी भी उनके काम नही आती है। सेठ सारंगशाह जी इरो धर्मार्थ सोंप गये है और अपने हाथ से लिख गये हैं कि जब भी देश, जाति और धर्म पर संकट आवे, तभी इसे काम में लिया जावे, अन्य कार्य में नहीं लगाई जाये । इसलिये हजर जब भी कोई संकट देश पर आया देखें, तब इसे काम में ले सकते हैं । यह सुन कर बादशाह बानन्द से गद्गद हो गये और हृदय प्रसन्नता से तर हो गया। बादशाह यह कह कर चले गये कि ठीक है, इस तलघर को बन्द करा दो और जव देश पर कोई संकट आयगा, तब इसका उपयोग किया जायगा । पंच लोग भी हर्षित होते हुये अपने घर चले गये और सारंगशाह का जयजय कार करते गये। __ सब के चले जाने पर मुनीमजी ने कहा--सेठानी साहब ! आप आज्ञा देवें तो फिर कारोवार शुरू किया जावे, क्योंकि अब कुवर साहव भी काम संभालने योग्य हो गये हैं। तत्पश्चात् सेठानी जी के कहने से मुनीम जी ने फिर उनका कारोबार शुरू किया और पुण्योदय ने साथ दिया कि कुछ दिन में उनके घर में आनन्द ही आनन्द हो गया। और कारोवार भी पूर्व के समान चलने लगा। उनके पोते का नाम था विजयशाह । भाइयो, कहने का यह मतलब है कि मनुष्य को अपनी नीति और नीयत सदा साफ रखना चाहिए। यदि कदाचित् मन कभी चल-विचल हो तो उसे ज्ञान के अंकुश मे वश में रखना चाहिए। नीति विरुद्ध कभी कोई काम नहीं करना चाहिए। नीति से चलने वालों पर पहिले तो कभी कोई संकट आता ही नहीं है और यदि पूर्व-पापोदय से आ भी जाय, तो वह जल्दी ही दूर हो जाता है। जो पुरुप व्यवहार और व्यापार तो नीति-विरुद्ध करते है और समाज में अपना पाप छिपाने के लिए दिखाऊ त्याग और तपस्या करते हैं, उनके वह सब करना बेकार है। माज कितने ही स्थानों पर ऐसे प्रमुख लोग देखे जाते हैं जो अपने को समाज का मुखिया कहते है और स्थानक, उपाश्रय
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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