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________________ प्रतिसलीनता तप २१७ दूसरे दिन भगवान राजगृही नगरी के समीपवर्ती भारगिरि पर पधार गये । नगर-निवासियों को जैसे समाचार मिले बैसे ही लोग उनके दर्शनवन्दन के लिए जाने लगे । वहां के छोटे-बड़े सभी पुरुष भगवान के परम अनुरागी थे । लोगों को जाता हुआ देखकर मेतार्य ने पूछा कि लोग कहां जा रहे हैं ? उन्होंने बताया कि भगवान वर्धमान स्वामी पधारे हैं । यह सुनकर मेतार्य भी तैयार होकर भगवान के दर्शन-वन्दन के लिए गया और समवसरण में यथाविधि वन्दन करके बैठ गया । भगवान की दिव्य और सर्व दुःखापहारिणी देशना चल ही रही थी, मेतार्य भी एकाग्न मन से सुनने लगा। सुनते-सुनते उसके भाव बढ़े, वह सोचने लगा-अहो, संसार के ये सुख तो आपातमात्र रम्य हैं, किन्तु इनका परिणाम तो अति भयंकर दुखदायी है। देव के द्वारा अनेक बार प्रतिबोधित किये जाने पर भी मैंने इतना समय व्यर्थ गंवा दिया । अब मुझे एक क्षण भी व्यर्थ नहीं खोना चाहिए और शीघ्र ही संयम को धारण करना चाहिए 1 संयम ही जीवन का सार है और प्राणी का रक्षक है । यह विचार कर भगवान की देशना बन्द होते ही उठा और भगवान की वन्दना करके बोला--भगवन् ! मैं आपके पास प्रनजित होना चाहता हूं 1 भगवान ने कहा - 'जहा सुहं, मा पडिबंधं करेह' (जिसमें सुख हो, वैसा करो, विलम्ब मत करो)। यह सुनते ही वह आज्ञा लेने के लिए घर माया और अपने माता-पिता से कहा- मुझे दीक्षा लेने के लिए आप लोग आज्ञा दीजिए। भगवान् पधारे हैं, मैं उनके श्री चरणों में दीक्षा ग्रहण करूंगा। मेताय के ये वचन सुनते ही सारे घर में कुहराम मच गया । सेठ-सेठानी ने सभी अनताल-प्रतिकूल उपायों से बहुत समझाने का प्रयत्न किया, परन्तु उसने संसार की असारता और काम-भोगों की विनश्वरता बताकर के सबको निरुत्तर कर दिया । तव राजा घोणिक ने मेतार्य के विरक्त होने का पता लगा तो वे भी आये और बोले -- कुमार ! तुमने अभी हाल में ही मेरी पुत्री के साथ विवाह किया है और अभी तुम जा रहे हो ? कुछ दिन तो और संसार के मख भोगो । मेतार्य ने कहा-जीवन का कोई भरोसा नहीं है, कव मृत्यू आ जाय। यदि वह अमी आ जाय तो क्या आप उससे मेरा परित्राण कर सकते है ? धणिक ने कहा-उससे तो मैं नहीं बचा सकता हूं । अन्त में उन्होंने भी और मेतार्य के माता-पिता और अन्य परिवार के लोगों ने आज्ञा दे दी और बड़ी धूम-धाम के साथ उनका दीक्षा महोत्सव किया । मेतार्य ने भगवान के पास जाकर के दीक्षा ले ली और सेवा में रहकर संयमधर्म की आराधना में लीन हो गये।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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