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________________ १८० प्रवचन-सुधा में कौन किसको शरण दे सकता है और मरण से बचा सकता है। इसलिए अब तो में 'केलिपप्णत्तं धम्म सरणं पन्वज्जामि' अर्थात केवलि-भगवान के द्वारा प्ररूपित धर्म की शरण को प्राप्त होता हूं। दसण-णाण-चरित्त सरणं सेवेह परम सखाए। अण्णं किं वि ण सरणं संसारे संसरंताणं ॥ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप जो भगवद्-उपदिप्ट धर्म है, मैं अब परमश्रद्धा से उसका ही सेवन करूंगा । क्योंकि संसार में परिभ्रमण करते हुए जीवों को इस धर्म के सिवाय और कुछ भी शरण नहीं है । ___ अतएव हे महाराज, जब मरना निचित है और इन सांसारिक काम-भोगों का वियोग होना भी निश्चित है, तव उनका स्वयं त्याग करना ही उत्तम है। क्योंकि महर्षियों ने कहा है-- अवश्यं यदि नश्यन्ति स्थित्वापि विपयाश्चिरम् । स्वयं त्याज्या स्तथा हि स्यान्मुक्तिः संसृतिरन्यथा । यदि ये काम-विषय चिरकाल तक रह कर भी अन्त में अवश्य ही विनष्ट होते हैं, तव इनका स्वयं ही त्याग करना उचित है। क्योंकि स्वयं त्याग करने पर तो मुक्ति प्राप्त होती है । अन्यथा संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है। हे राजन्, अब मैंने संसार छोड़ने का निश्चय कर लिया है, अतः अव मुझे आना दीजिए, ताकि मैं आत्म-कल्याण कर सक ! राजा ने भी देखा कि अव यह रहनेवाला नहीं है, तब उसे आज्ञा दे दी। तत्पश्चात् आपाढ़भूति घर आया और कुटुम्ब-परिवार को भी समझा-बुझा कर और सबसे अनुज्ञा लेकर महात्माजी के पास जाकर साधु बन गया और उनकी चरण-सेवा में रहते हुए आत्मसाधना करने लगा । उसकी इस यात्म-साधना और घोर तपस्या को देखकर लोग कहने लगे-अहो, कहां तो यह महा शिकारी था और कहां अब यह साधना के द्वारा अपने ही शरीर को सुखा रहा है। तपस्या के प्रभाव से आपाढ़भूति को अनेक ऋद्धियां सिद्ध हो गई और वह निस्पृहभाव से अपनी साधना में संलग्न रहने लगा । एक समय विहार करते हुए वह अपने गुरु एवं सघ के साथ राजगृही नगरी में आया। अभी तक गुरुदेव कभी किसी शिष्य को गोचरी लाने की आज्ञा देते थे और कभी किसी को । एक दिन उन्होंने आपाढ़मूति को गोचरी लाने की आज्ञा दी । आपाढमूति नगरी में गये और उत्तम, मध्यम, जघन्य सभी प्रकार के कुलों में अर्थात् सधन-निर्धन सभी प्रकार के लोगों के परों में गोचरी के लिए गये । परन्तु साधुजनों के योग्य एपणीय आहार कहीं
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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