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________________ विचारों की दृढ़ता १८१ भी प्राप्त नहीं हुना और न निर्दोष जल मिला । ज्येष्ठ मास और मध्याह्न का समय था, गोचरी के लिए भ्रमण करते हुए आपाढ़भूति का शरीर गर्मी से तिलमिला उठा। आखिर, इतने दिन बीत जाने पर भी अभी तक शरीर की सुकुमारता नहीं गई थी। अतः वे विचारने लगे कि साधुपने के अन्य कार्य तो अच्छे हैं । परन्तु गोचरी के लिए यह घर-घर फिरना ठीक नहीं है । इधर तो यह विचार आया और उधर सामने ही एक बड़ी हवेली का प्रवेश द्वार खुला हुआ दीखा । उन्होंने उसमे प्रवेश किया । उस हवेली का मालिक एक भरत नामक नट था । उसकी दृष्टि गोचरी के लिए आते हुए साधु पर पड़ी। उसने साधु से कहा- पधारो महाराज, आज मेरा घर पवित्र हो गया। इसी समय उसकी स्त्री और दोनों जवान लड़किया भी भागई। सबने साधु की अभ्यर्थना की । और घर में उसी दिन के ताजे बने हुए लड्डुओं में से एक लड्डू बहरा दिया। आपाड़मूति मुनि सोचने लगे-आज मैं तो गोचरी के लिए घूमता हुआ हैरान हो गया। अब तो अन्यत्र जाना संभव नहीं है । अतः वे ड्योढ़ी तक गये और लब्धि के बल से दूसरा रूप बना कर फिर आगये । भरत नट ने एक लड्डू और बहरा दिया । वे फिर ड्योड़ी तक जाकर और नये युवा मुनि का रूप बना कर फिर आगये । भरत नट ने पुनः एक और लड्डू बहरा दिया । अब की बार वे वृद्ध मुनि का रूप बना कर आये और एक लड्ड फिर ले आये । यह देखकर भरत नट विचारता है कि ये ड्योढ़ी तक जाकर ही फिर-फिर आ जाते हैं, घर से बाहिर तो निकलते ही नहीं है, और हर वार नया रूप बनाकर आ जाते हैं, अतः ये करामाती प्रतीत होते है । अब जैसे ही चौथी वार वे साधु जब तक लौट कर नहीं आये, तब तक इसी ही बीच में वह नट भीतर गया और लड़कियों से बोला मैं तुम लोगों की शादी करने के लिए इधर-उधर बहुत फिरा हूं। मगर अभी तक कोई उत्तम वर और घर नजर नहीं आया है । और यह साधु करामाती जान पड़ता है सो यदि अब यह भीतर आवे, तो तुम लोग उसे अपनी मोहिनी विद्या से मोहित कर लो । मैं उसी के साथ तुम लोगों की शादी कर दूंगा । लड़कियों ने उसकी · बात स्वीकार कर ली । अव की वार जैसे ही वे साधु नया रूप बनाकर आये तो भरत नट की दोनों पुत्रियों ने लड्डू बहराये और वोली, हे स्वामिन्, आप बार-बार क्यों कष्ट उठाते है। आपकी सेवा में हम सव उपस्थित हैं और यह धन-धान्य से भरा-पूरा मकान भी आपको समर्पित है । अतः आप यहीं रहिये । उन लड़कियों की यह बात सुनकर मुनि बोले--तुम लोग दूर रहो और हमसे ऐसी अनुचित बात मत कहो । तव वे दोनों बोली-अव दूर रहने का काम नहीं है । हमने आपकी सव करामात देख ली है । आप आये तो एक हैं और
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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