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________________ विचारों की दृढ़ता १७६ इच्छा से उसके कांटे में अपना गला फंसा कर प्राण गंवाती है, भौंरा सुगन्ध लोलुपी होकर कमल के भीतर बन्द होके प्राण गंवाता है । पतंगे रूप के लोलुपी बनकर दीपक की ज्वाला में जल कर मरते हैं और हरिण बहेलिये का गीत सुनकर क्षोम इन्द्रिय के वश मारा जाता है। फिर जो मनुष्य नित्य प्रति पांचों ही इन्द्रियों के काम-भोगों को भोगता है, उसकी क्या गति होगी, यह तू विचार कर । ये काम-भोग सेवन करते समय ही किंपाकफल के समान मधुर मालुम पड़ते हैं, किन्तु परिपाक के समय तो मरण को ही देते है। मनुष्य के काम-भोग तो क्या वस्तु है ? राजाओं, विद्याधरों, चक्रवर्तियों और देवेन्द्रों तक की तृष्णा अपने असीम भोगों को चिरकाल तक भोगने पर भी शान्त नहीं हुई है, तो फिर तेरी तृष्णा इन अल्प भोगों से क्या शान्त हो सकती है । इसलिए है भव्य, अव तू इन काम-भोगों को तज और सुख देने वाले विराग को भज, जिससे कि शिव लक्ष्मी का अविनाशी सुख पा सके। महात्मा के इस उपदेश का आपाढ़भूति पर भारी प्रभाव पड़ा । वह वोला - महात्मन्, मैं अभी तक भारी अज्ञानान्धकार में था । आज आपके इस अपूर्व उपदेश से मेरे भीतर ज्ञान की ज्योति जग गई है। अतः अब मैं आपके ही चरणों की सेवा में रहना चाहता हूं । कृपा करके आप नगर में पधारिये । तव महात्माजी ने कहा-अवसर होगा तो आवेंगे । तत्पश्चात् यह आपाढ़भूति घोड़े पर चढ़ कर नगर में वापिस लोटा और सीधा राजा के पास पहुंच कर बोला-महाराज, अब आप अपना कार्य-भार सम्हालें। राजा ने पूछा -- आषाढ़भूति, क्या बात है ? आज ऐसा क्यों कह रहे हो? उसने महात्मा के पास पहुँचने और उनके उपदेश की सुनने की सारी बात कह सुनाई और फहा-महाराज, मुझे मरने से कौन बचायेगा ? यदि आप मुझे मरने से बचा सकते है, तो मैं आपका काम संभाले रह सकता हूं। परन्तु कल यदि अकस्मात् मौत आजाय, तो मुझे कौन बचायगा? सन्त तो कहते हैं - दल-बल देवी देवता, मात-पित्ता परिवार । भरती विरियां जीव को, कोई न राखन हार ।। और आगम-शास्त्रों में भी कहा है-- तत्थ भवे किं सरणं जत्थ सुरिंदाण दीसदे विलमओ । हरि-हर-बभादीया कालेण य कवलिया जत्य ॥ अर्थात्-- जिस संसार में देवों के स्वामी इन्द्रों का भी विनाश देखा जाता है और जहां पर हरि-हर-ब्रह्मादिक भी काल के ग्रास बन चुके हैं, उस संसार
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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