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________________ ११४ प्रवचन-मुधा ___ माता, मने नरक के भाव सुने है, नारकी एक दूसरे को कैसे-कैसे दुख देते है, यह याद करके मेरा जी थर-थर कापने लगता है। वे लकडी के समान करवत से शरीर को चीर डालते हैं, और अथाने में जैसे मसाला भरते हैं, वैसे ही उस चिरे हुए शरीर मे नमक मिर्च भरते है । मा, उस नरक के दुखो के सामने माकुपने का दु ख क्या है ? कुछ भी नहीं है। इस जीव ने जन्म जरा, मरण के अनन्त दुःखो से भरे इस मसार मे महा भयकर कष्टो को भोगते हए अनन्ता काल बिता दिया है। इसलिए हे मेरी प्यारी माता । उन दुखो से छूटने के लिए आप मुझे सयम लेने की आज्ञा दीजिए ! यह सुनकर माता बोली-बेटा, साधुपन मे तुझ कौन कलेवा करायेगा और बीमार पड़ने पर कीन तेरी परिचर्या करेगा ? तब धनाजी ने कहा-माताजी, इनकी क्या आवश्यकता है? वन मे , इक मिरगलो जी रे, कुण करे उणरी सार। मृगनी परै विचरस्यूजी एकलड़ो अनगार ।। हे माता, तुम मेरे लिए पूछनी हो कि वहा तेरो सार-सभाल कौन करेगा ? परन्तु देखो---जगल मे बेचारा एक अकेला हिरण रहता है, वह भूखा-प्यासा है, सर्दी-गर्मी लगती है और रहने का भी ठिकाना नहीं है, सो उसकी भी कोई सार-मभाल करता है ? कोई नहीं पूछता है । फिर वह मरता है, या जीता है ? कोई उससे सुख-दुख की बात पूछता है ? कोई भी नहीं पूछता । फिर भी वह जीवित रहता है, या नही? तव फिर मेरे लिए इतनी चिन्ता क्यो करती हो? उनकी जैसी आत्मा है, वैसी ही मेरी है। जैसे वह हरिणा सुख दुख की परवाह नहीं करता है। वैसे ही अब मुझे भी अपने सुख दुख की परवाह नहीं है । निर्गन्य अनगार तो इस दु खो से भरे संसार से और उसके अलीते-पलीते से अलग होकर स्वतन्त्र और निराकुल रहने में ही सुख मानते हैं। इस प्रकार समझा करके धन्नाजी ने मा को निरुत्तर कर दिया। धन्नाजी के वैराग्य की चर्चा धीरे-धीरे सारे नगर में फैल गई। जब वहा के राजा को इसका पता लगा तव वे भी आये और कहने लगे--धन्नाजी, तुम्हारे से ही हमारे सारे राज्य का काम-काज चलता है और तुम्हारे द्वारा ही हमारे गज्य की शोभा है । फिर तुम्हे घर छोड़कर सावुपना लेना शोभा नही देता। नगर के अन्य भी प्रमुख सेठ लोग माये और उन लोगो ने भी कहा कि सेठ साहब, यह क्या विचार कर रहे हो ? तब धनाजी ने सव से कहा-बस, जो कुछ धारना था, सो धार लिया। यदि आप लोग घर मे ही रहने का
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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