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________________ उत्साह ही जीवन है ११३ है। वह सोचने लगी-- हाय, हाय ! ये भगवान् कहां से आगये ? हाय, आज मेरे बेटे ने उनकी वाणी कहां से सुन ली ? हाय, मेरे बेटे को-मेरे लाडले एक मात्र पुत्र को उन्होने मोह लिया । यह कहती हुई वह मूच्छित हो गई। जब होश में आई तो कहने लगी 'हियड़ो लागो फाटवा सरे, ते दु.ख सह्यो ना जाय । नीर झरे नयनां थकी सरे मुक्ताहार तुड़ाय ।। सुन पुत्र हमारा संजम मत लीजे मां ने छोड़के ।। जैसे मोतियों के हार में से एक-एक मोती गिरता है वैसे ही उनकी आंखों से आंसू टपकने लगे । रुदन करती हुई माता वोली-बेटा, यह साधुपना कोई खाने का लड्डू नहीं है, और खेलने का खिलौना नहीं है । यह तो भारी कठिन तपस्या है। वे कहने लगी-- संयम नहीं छ सोयलो सरे, खड्ग धार सी चाल । घर घर करनी गोचरी सरे, दूषण सगला टाल ॥ वाईस परीषह आकरा सहे, किम सहसो सुकुमाल रे। सुन पुत्र हमारा, संजम मत लीज मांने छोड़के ॥ हे वेटा, तू साधुपना-साधुपना की क्या बात कर रहा है ? यह तो तलवार की तेज धार के ऊपर चलने के समान है । अलूनी शिला चाटने के समान है, आराम छोड़ना और अपमान को सहना है, सारी ऋद्धि-सिद्ध छोड़ कर दरिद्रता को अंगीकार करना है । वेटा, तेरे क्या कमी है ? एक से एक बढ़कर और देवांगनाओं से भी सुन्दर बत्तीस कन्याओं के साथ तेरा विवाह किया है। यदि इनसे मन उतर गया हो, तो इनसे बढ़कर बत्तीस और परणा हूँ? घर में क्या कमी है ? फिर तू क्यों यह सव छोड़कर और मेरे से मुख मोड़ कर साधुपना लेने की सोच रहा है ? । भाइयों, मां ने तो कहने में कोई कसर नहीं रखी । पर धन्नाजी ने कहा -- माता जी, आप कहती हैं कि साधुपना दोरा (कठिन) है। परन्तु मैं कहता कि सोरा (सरल) है । सुनो माताजी--- नरक वेदनी सही अनन्ती, कहं कहां लग माय ! परमाधामी वश पड्यो सरे मेरी करवत वैरी काय ॥ जन्म जरा दुख मरणना सरे, सुणता जी थिर्राय हो। मां जी म्हारा आज्ञा देवो तो संजम आदरू ।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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