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________________ १०८ उत्तराध्ययन या कि केवली-कथित धर्म से हो जाता है भ्रष्ट स्वतः । ___केवल ललनाओ के बीच न कथा करे निर्ग्रन्थ अत' ॥१३॥ स्त्री सह एकासन पर जो न बैठता वह निर्ग्रन्थ महान । यह क्यो? तब आचार्य कह रहे इससे ब्रह्मचर्य मे जान ॥१४॥ शका काक्षा विचिकित्सा होती फिर होता सयम-भेद । या उन्माद व चिरकालिक रोगातको से होता खेद ॥१५।। या केवलि-प्रज्ञप्त धर्म से हो जाता परिभ्रष्ट स्वतः । नारीगण के साथ न एकासन पर बैठे सत अत. ॥१६॥ रम्य मनोहर नारि-इन्द्रियो को न देखता देकर ध्यान । __ यह क्यो ? तब आचार्य कह रहे इससे ब्रह्मचर्य में जान ।।१७।। शका कांक्षा विचिकित्सा होती या होता सयम-नाश __या उन्माद व चिरकालिक आतङ्क रोग हो जाता खास ॥१८॥ या केवलि-प्रज्ञप्त धर्म से होता भ्रष्ट अत निर्ग्रन्थ रम्य मनोहर नारि-इन्द्रियो को न ध्यान धर देखे सत ॥१९॥ कुड्य, दुष्य, भित्यन्तर से कूजन, रोदन व हास्य, गर्जन . क्रन्दन, गीत, विलाप आदि शब्दो को न सुने, वही श्रमण ॥२०॥ यह क्यो? ऐसा पूछे जाने पर कहते आचार्य महान । इन शब्दो को सुनने से ही ब्रह्मचर्य व्रत मे पहचान ॥२१॥ शंका काक्षा विचिकित्सा होती फिर होता सयम-नाश । __ या उन्माद व चिरकालिक आतङ्क रोग हो जाता खास ॥२२॥ या कि केवली-कथित धर्म से हो जाता है भ्रष्ट स्वत.।. __कभी नही उपरोक्त नारि शब्दों को साधक सुने अत ॥२३॥ पूर्व-भुक्त, रति या क्रीडा को याद न करे, श्रमण मतिमान। . यह क्यो? तब गुरुवर कहते हैं इनसे ब्रह्मचर्य मे जान ।।२४॥ शका काक्षा विचिकित्सा होती फिर होता सयम-नाश। । ' या उन्माद व चिरकालिक रोगातको से पाता त्रास ।।२।। या कि केवली-कथित धर्म से हो जाता परिभ्रष्ट स्वत. । । पूर्व-भक्त रति क्रीडामओ की साधक याद न करे अतः ।।२६।।
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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