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________________ १०६ अ० १६ : ब्रह्मचर्य समाधि-स्थान प्रणीत भोजन नहीं करे जो कहलाता निर्गन्थ महान । । यह क्यों ? तव गुरुवर कहते हैं इससे ब्रह्मचर्य मे जान ॥२७॥ शका काक्षा विचिकित्सा होती या होता संयम-नाश। या उन्माद व चिरकालिक आतङ्क रोग हो जाता खास ॥२८॥ या केवलि-प्रज्ञप्त धर्म से हो जाता परिभ्रष्ट स्वतः। प्रणीत भोजन कभी नहीं खाए साधक निर्ग्रन्थ अत. ॥२६॥ जो प्रमाण से अधिक नही खाता-पीता वह श्रमण महान । यह क्यो ? तब गुरुवर कहते हैं इससे ब्रह्मचर्य मे जान ॥३०॥ शका कांक्षा विचिकित्सा होती . या होता सयम-नाश। • या उन्माद व चिरकालिक प्रातङ्क रोग होता है खास ॥३१॥ या कि केवली-कथित धर्म से हो जाता है भ्रष्ट स्वतः । । शास्त्र-विहित मात्रा से अधिक न खाए-पीए श्रमण अतः ॥३२॥ गात्र-विभूषा न करे जो वह कहलाता निर्ग्रन्थ सुजान। '' , यह क्यो ? ऐसा पूछे जाने पर कहते प्राचार्य महान ॥३३॥ गाव-विभूषा से स्त्रीजन से अभिलषणीय बने मतिमान । नारि-जन-अभिलेषितं ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य में जान ॥३४॥ शंका काक्षा विचिकित्सा होती या होता सयम-नाश ।' या उन्माद व चिरकालिक आतङ्क रोग हो जाता खास ॥३॥ या केवलि-प्रज्ञप्त धर्म से हो जाता है भ्रष्ट स्वत.। तन की शोभा और विभूषा करे नहीं निर्ग्रन्थ अत. ॥३६॥ स्पर्श, गंध, रस, रूप, शब्द मे गृद्ध न हो, वह श्रमण महान। - यह क्यों ? तब गुरुवर कहते हैं इससे ब्रह्मचर्य में जान ॥३७॥ शका काक्षा विचिकित्सा होती या होता सयम-नाश। । या उन्माद व चिरकालिक आतङ्क रोग हो जाता खास ॥३८॥ या केवलि-प्रज्ञप्त धर्म से हो जाता है भ्रष्ट स्वतः। स्पर्श, गध, रस, रूप, शब्द में गृद्ध न साधक बने अतः ॥३९॥ अन्तिम दसवां ब्रह्मचर्य सुसमाधि स्थान यह कहा तथा। । इसी विषय के श्लोक और भी यहा कहे हैं, सुनो यथा ॥४०॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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