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________________ . . . ..... .. . ...... Prem........ ... 'तस्स भंते पडिवकमामि निंदामि गरिहामि' वाक्यांश में साधक अपने ... द्वारा पूर्वकृत पापों की निन्दा, आलोचनाःव गर्दा करता है। निन्दा स्वयं की या औरों की नहीं वरन् पापों की.करनी है। कवि ने भी कहा है " 'वृणा पाप से नहीं पापी से' । दोषों की, पापाचरण की निन्दा करने से साधक अपने कर्मों की महान् निर्जरा करता है. व आत्म शुद्धि की ओर एक कदम और सन्निकट पहुँचता है। कषाय व पाप आत्मा के अपने निजगुण ..नही वरन पर गुण हैं, दोष हैं। ये आत्मा को स्वभाव दशा से विभाव दशा में ले जाने का दूष्कार्य करते हैं। जो अपना स्वगुण नहीं वरन् पर गुण है, विरोधी हैं तथा अपने घर पर अधिकार किये बैठा है; उस कषाय परिणति की जितनी निंदा करें, उतनी ही थोड़ी है। श्रमण भगवान महावीर ने स्वयं कहा है-- : 'आत्म-दोषों की निन्दा करने से पश्चाताप का भाव जागृत होता है, - पश्चाताप के द्वारा विषय-वासना के प्रति वैराग्य भाव उत्पन्न होता है और ज्यों-ज्यों वैराग्यं भाव का विकास होता है, त्यों-त्यों साधक सदाचार की गुण श्रेणियों पर आरोहरण करता है और जब गण श्रेणियों पर आरोहरण करता है तब मोहनीय कर्म का नाश करने में समर्थ हो जाता है । मोहनीय कर्म का नाश होते ही आत्मा शुद्ध, वृद्ध, परमात्म-दशा पर पहुंच ... जाती है । ....................... .. जैन दर्शन ने साधक को निन्दा के साथ ही गर्दा की एक अन्य अनुपम . . भेंट प्रदान की है। प्रात्म-शोधन के लिये गर्दा बहुत महत्त्वपूर्ण है, जहां निन्दा .. में साधक स्वयं एकांत में बैठ कर अपने पापों की निन्दा करता है, दूसरों के सम्मुख अपने पापों को प्रकट नहीं करता, वहां गर्दा में साधक (वह) गुरु के चरणों में आकर उनकी साक्षी से भी अपने पापों की आलोचना करता है । वह अपने पापों की गठरी गुरुदेव के चरणों में खोल देता है। गर्दा कोई यात्मबल का धनी व्यक्ति ही कर सकता है। प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा का ख्याल छोड़ सकने वाला व्यक्ति ही इसमें सक्षम हो सकता है। भगवान महावीर के अनुयायियों के मन में 'छिपाव' नाम की कोई चीज नहीं होनी .. चाहिये । अपने दोषों को प्रकट करना भय का नहीं वरन् साहस का, लज्जा का नहीं वरन् स्वाभिमान का कार्य है। .. - अन्त में साधक आत्मनिंदा व गहीं के बाद यह भावना अभिव्यक्त करता है कि वह 'अप्पारणं वोसिरामि' याने अपनी आत्मा को अपने आपको त्यागता है । यह कैसे ? इसका स्पष्टीकरण हम तस्स उत्तरी-सूत्र के संदर्भ में कर चुके हैं । यहां इतना समझना ही पर्याप्त है कि यहाँ 'अप्पाणं ... वोसिरामि' से अभिप्राय अपने पूर्व के दूषित जीवन को छोड़ने से है। ...... सामायिक - सूत्र / ४७ .
SR No.010683
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendra Bafna
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1974
Total Pages81
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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