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________________ 'अव्ययाच्यप् 183 - अमेह क्व सियेभ्य एव 1 +2 सूत्र की व्याख्या में भाष्यकार ने 'अमेह क्व ता सियेभ्यस् 7 इस श्लोक वार्त्तिक में परिगणन किया है । अव्यय त्यात्वधियों व्यपात्स्मृतः से जो 'त्यप् विधि' की जाती है वह 'अमादि' 'परिगणित' शब्दों से ही की जाए । जैसे अया से अमात्य:, इह - इह त्य:, क्व क्व त्य:, तसि ततस्त्य:, त्र तत्रत्यः इत्यादि शब्द रूपों की सिद्धि की जाती है । 'तसि त्र' दोनों प्रत्यय हैं अतः 'प्रत्ययग्रहणेतदन्त ग्रहणं च परिभाषा' से यहाँ भी 'त्यप्' प्रत्यय हो जाएगा । तद्वितश्चासर्व विभक्ति: ' सूत्र से 'इह' इत्यादि की अव्यय संज्ञा होती है । परिगणन वार्तिक के अनुसार औत्तराहः, औपारिष्ट: पारत:' इत्यादि स्थलों में 'त्यप्' प्रत्यय नहीं होगा, यहाँ 'उत्तराद्विभवः, उपरिष्यत् भव:, परतो भवः' इत्यादि स्थलों पर औत्सर्गिक अणु होने पर 'अव्ययानां ममात्रे टिलोपः ' से 'टि' लोप 'प' होगा । उत्तरादि, उपरिष्टाद परतस् इन सब की 'तद्वितश्चासर्व विभक्तिः '3 से 'अव्यय त्व' सिद्ध है तथा परिगणन' के अन्तर्गत न होने से 'त्यप्' नहीं होगा । भाष्यकार ने कहा भी है - इतरथा यौत्रराहोपरिष्ट पारतानां प्रतिषेधीवक्तव्यः स्यात् । इति । - 1. लघु सिद्धान्तकौमुदी, तद्वित प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 924. 2. अष्टाध्यायी 4/2/104. 3. वही, 1/1/38. -
SR No.010682
Book TitleLaghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrita Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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