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________________ ५६ फूलोका गुच्छा। पर चढ़ने लगा और कभी अविश्वास करके चिन्ताकी धूलमें लोटने लगा। कहीं यह आँखोंमें धूल न डाली जाती हो! कहीं यह उपहास न हो, व्यङ्गय न हो, चिढ़ाना न हो ! नहीं, सत्य भी हो सकता है। सत्य होने में कोई सन्देह नहीं । तब क्या इस प्यासे चातकके मुँहमें एकाएक जलकी धारा पड़ जायगी ? अहा हा ! सचमुच ही आज मैं विजयी हुआ हूं। रमणीके चित्तपर विजय प्राप्त करना साम्राज्यविजयसे कहीं बढ़कर है । मैं धन्य हूं ! भाग्यशाली हूँ ! विजयी हूं! इस प्रकार नानाप्रकारकी विचार तरंगोंमें डूबते और उतराते हुए आखिर उसने पत्रका उत्तर लिखाः “ मन्मथमैत्रीवशीकृता श्रीमती भद्रसामाके समीपमें । भद्रे, तुम पुष्पधन्वाकी सम्मोहन बाण हो। यह समझमें नहीं आता कि मैं आज पराजित हुआ हूँ या जीता हूँ; परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि मैं सुखी हुआ हूं। मैं चाहता हूं कि आजका यह अपूर्व सुख निरंतर भोगता रहूँ। -मुग्ध झल्लकण्ठ ।" दूसरे दिन मन्त्री झल्लकण्ठके प्रयत्नसे सन्धि हो गई। जब झल्लकण्ठ गजेन्द्रगढ़ राज्यका बहुतसा हिस्सा द्रोणायणको देनेके लिए तत्पर हो गया, तब द्रोणायणने भी उसके साथ अपनी पुत्रीका विवाह कर देना स्वीकार कर लिया। सन्धिपत्रपर दोनों ओरके हस्ताक्षर हो गये । झल्लकण्ठ रमणी-मोहमें पड़कर कर्तव्यसे भ्रष्ट हो गया ! (२) नीरा और भीमा नदीके सङ्गमके समीप ही एक पुष्पवाटिका थी। एक ओर भीमा कदलीकुञ्जमें क्रीड़ा करती हुई, शुभ्रशिलाओंसे टकराती हुई, विविध प्रकारके वृक्षोंसे छेड़छाड़ करती हुई और अपनी निर्मल धाराको नीराके नीरमें मिलाती हुई, उसकी छाती पर विश्राम लेती हुई दिखलाई देती थी और दूसरी ओर भीमा अपनी भुजारूप तरंगोंसे उसे गाढ़ आलिङ्गन देती हुई और फेनराशिरूप आनन्द प्रगट करती हुई मातृभावको प्रकट करती थी। राजकुमारी उद्यानके एक रमणीय चबूतरेपर बैठी थी और अपने आभूषणमण्डित हाथोंके ताल देदेकर क्रीडा-मयूरको नचा रही थी। उसकी पुष्पिका नामक सखीने अशोककी माला गूंथकर उसके मुकुटमें पहना दी थी। उसके शुभ्र ललाटपर यह
SR No.010681
Book TitleFulo ka Guccha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1918
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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