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________________ फूलोका गुच्छा। वसन्तने हँसकर कहा-मैं जिस रत्नकी बात कहता हूं, उस रत्नको आपका कोषाध्यक्ष न पहचान सकेगा। मैंने उसका बड़ी कठिनाईसे पता लगाया है। वह दूर भी नहीं है । देखिए, यह है ऐसा कहकर वसन्तने कुछ आगे झुककर यमुनाके दोनों हाथ थाम लिये और लोगोंके विस्मयकी परवा न करके उससे हँसकर कहा-क्यों सुभद्रा, क्यों यमुना, एक चक्रवर्ती नरेशके साथ ऐसी ठगाई ! ठहरो, मैं तुम्हें इसका दंड देता हूं। काशीसे अवन्तीके राजमहल में तुम्हारा निर्वासन (देशनिकाला) किया जाता है। क्यों, यह दंड स्वीकार है ? मालूम होता है, आज अवन्तीकी प्रार्थना व्यर्थ न जाने पायगी। यदि अवन्तीके राजप्रासादमें तुम्हें अच्छा न लगेगा, तो वहां फूलोंके वनोंकी भी कमी नहीं है और अवन्तीके महाराजको उसी वसन्त मालीकी जगह दे दी जायगी। फिर तो प्रसन्न रहोगी? उसकी वीणा तुम्हारी विरद गाया करेगी और वह तुम्हारे गलेमें डहडहे फूलोंकी माला पहिनाया करेगा । तुम्हारे दिये विना वह बाहर जानेके लिए छुट्टी भी न पा सकेगा! इस समय यमुनाकी दशा बड़ी ही विलक्षण थी। उसके हृदयमें आनन्दका और लज्जाका द्वन्द्वयुद्ध मच रहा था । लज्जाका बल ज्यादा होनेके कारण आनंद अपने साथ शरीरको भी लेकर गिरना चाहता था। काशीराजने इस विश्वासके अयोग्य घटनासे विस्मित होकर कहा-महाराज, मेरी ये समस्त सुन्दरी कन्यायें इस समय अविवाहिता हैं। वसन्त अपने हास्यसे उन समस्त सुन्दरियोंको अतिशय लज्जित करता हुआ बोला-नहीं, राजन्, मैंने तो सुना है कि ये कर्नाटक कलिंगादि देशोंके सिंहासनोंको उज्ज्वल करेंगी। - "किन्तु महाराज, इन्हें आपके श्रीचरणोंके समीप स्थान दिया जाय, तो ये प्रसन्नतासे कर्नाटक कलिंगादिके सिंहासनोंके त्याग करनेके लिए प्रस्तुत हैं।" वसन्तने मुसकुराकर कहा-काशीराज, मेरा रूपका नशा अब उतर गया है। राजाओंके महलोंमें हृदय खरीदकर पाया जा सकता है, जीत करके नहीं । यह जान करके भी मैं दीनवेषको धारण करके हृदय जीतनेके लिए निकला था। परन्तु मैंने यहां एक ऐसे हृदयको पाया, जो
SR No.010681
Book TitleFulo ka Guccha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1918
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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