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________________ १०४ फूलोका गुच्छा। कुछ अन्तर नहीं है। हम तुम दोनों ही एक पथके पथिक हैं । आओ, हम तुम हृदय मिलाकर मिल लें और इस मार्गको शीघ्र तय करनेका प्रयत्न करें।" बहुत समय व्यतीत हुआ देखकर राजाके अंगरक्षकोंको भय हुआ। उन्होंने भीतर जाकर देखा, तो आराद जैत्रसिंहके कंधेपर सिर रक्खे हुए रो रहा है और जैत्रसिंह एक अपूर्व आध्यात्मिक तेजसे दीप्तिमान् हो रहा है! भगवान् बुद्धदेव पूर्वकथित उपवनमें ही विराजमान हैं। प्रभातका समय है। सूर्यदेव धीरे धीरे ऊपर आ रहे हैं । किसी मनुष्यके पैरोंकी आहट सुनाई पड़ने लगी। भगवान् बुद्धदेवने नेत्र खोले । राजा जैत्रसिंह नमस्कार करके सन्मुख खड़ा हो गया। इस समय राजाके साथ कोई भी पुरुष न था। उसने भिक्षुकका वेष धारण कर रक्खा था। उसकी मुखमुद्रा.पर एक अपूर्व शान्ति विराजमान थी।बुद्धभगवानने उसे आशीर्वाद दिया और कहा-"बेटा, तुम परीक्षामें उत्तीर्ण हो चुके । अब प्रसन्नताके साथ दीक्षा ग्रहण करके अपना और अगणित संसारदुःखमन्न प्राणियोंका कल्याण करो।" इसके पश्चात् बुद्धदेवने उसे मंत्रोपदेश दिया। इस समय सुगन्धित मन्द पवन चली रही थी। चारों दिशाओंमें दिव्य शान्ति प्रसर रही थी और प्रभात. कालकी रमणीयता अलौकिक भासित होती थी।
SR No.010681
Book TitleFulo ka Guccha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1918
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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