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________________ १०२ फूलोका गुच्छा। चर होती है, वहाँ हृदय और नेत्रोंको आनन्दित करनेवाली सुनहरी रंगकी किरणें कभी देखी हैं ? बाह्यबुद्धि इसी प्रकारकी है।" राजकुमारकी आँखोंसे आँसू बहने लगे। उसने बुद्धदेवको साष्टांग प्रणिपात करके भर्राई हुई आवाजमें कहा-"प्रभो! अपने समीपसे मुझे दूर मत करो। आपका शिष्य बननेके लिए मुझे एक बार फिर प्रयत्न करने दो । आपके शिष्य होनेकी योग्यता कैसे आ सकती है, यह अब मैंने भलीभाँति समझ लिया है।" बुद्धदेवने कहा, “अच्छा जाओ, तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार हुई।" राजकुमार अपने साथियोंको लेकर उसी समय वहाँसे चला गया। राजकुमार जैनसिंहने अपने राज्यमें पहुँचकर अपने पिताकी मृत्युवाती सुनी। राज्यका सारा कार्यभार उसके सिरपर आ पड़ा । न्यायनीतिसे प्रजाका पालन करनेके कारण थोड़े ही दिनोंमें वह न्यायी और प्रजाप्रिय राजा कहलाने लगा। उसने पहले अपने मित्रके लिए और उससे मित्रता करनेकी इच्छा करनेवाले उपरिकथित नवीन पुरुषके लिए पास ही पास दो महल बनवा दिये और अपनी बहिष्कृता स्त्रीको भी बुलाकर फिर राजमहलमें दाखिल कर ली । इससे राजाकी बड़ी निन्दा होने लगी। उसके पिताके समयके जो वृद्ध सेवक थे, वे अप्रसन्न हो गये । घर घर इन्हीं बातोंकी चर्चा होने लगी। उसकी समुचित सुधारणा ओंमें लोगोंको स्वेच्छाचारिताकी दुर्गन्धि आने लगी। __ परन्तु इससे राजा विचलित न हुआ। उसे पुष्पशय्या और कंटकशय्या एकही सी भासित होने लगी । कंचन काच, महल स्मशान, धनी निधन और जीवन मरणमें उसकी समदृष्टि हो गई। उसने लोगोंकी निन्दा-स्तुतिकी ओर आँख उठाकर झाँका भी नहीं । वह अपने कर्तव्यपथ पर बराबर आरूढ़ रहा । राजाका एक छोटा भाई था । वह अपने बड़े भाईकी उपर्युक्त परणतिसे अप्रसन्न होकर शत्रु बन गया । उसने राजाके विरुद्ध एक बड़े भारी षड्यंत्रकी रचना की, जिसका कि उद्देश्य राज्याधिकारके परिवर्तन कर देनेका था। एक दिन राजा जैत्रसिंहको किसीने आकर खबर दी कि तुम्हारे वध करनेका गुप्त यत्न किया जा रहा है; परन्तु इससे राजा जरा भी भयभीत न हुआ। उसे अपनी रक्षा करनेकी जरा भी चिन्ता न हुई-अपने प्राण जानेकी शंकासे वह व्याकुल नहीं हुआ। उसने एक दिन अपने एकान्त स्थानमें देखा कि एक अपरिचित पुरुषने मेरा काम तमाम करनेके लिए तलवार उठाई है! वह तलवार
SR No.010681
Book TitleFulo ka Guccha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1918
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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