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________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज भाइयो, मैंने मनमाने रुपया लूटाकर इस वृद्ध ब्राह्मणका सर्वनाश कर डाला है, अब मैं उसका फल भोग रहा हूँ। भगवान्, मेरी सावित्रीकी रक्षा करो। इसके बाद मैं हरनाथके जूते उठाकर अपने सिरमें तडातड़ मारने लगा! वृद्ध घबड़ा गया, उसने मेरे हाथसे जूते छीन लिये। दूसरे दिन १० बजे हरिद्रा-रंग-रंजित सावित्री इस लोकसे विदा हो गई। इसके दूसरे ही दिन दारोगा साहबने कहा-डाक्टर साहब, क्या सोच रहे हो ? घर-गिरस्तीकी सार-संभालके लिए एक आदमी तो चाहिए ही; फिर अब विवाह क्यों नहीं कर डालते ? ___ मनुष्यके मर्मान्तिक दुःख-शोकके प्रति इस तरहकी निष्ठुर अश्रद्धा किसी शैतानको भी शोभा नहीं दे सकती । इच्छा तो हुई कि दारोगा साहबको दो चार सुना दूं; परन्तु समय समयपर मैं उनके सामने जिस मनुष्यत्वका परिचय दे चुका था उसकी याद आ जानेसे इस समय मेरा मुँह उत्तर देनेको नहीं खुल सका । उस दिन ऐसा मालूम हुआ कि दारोगाकी मित्रताने चाबुक मारकर मेरा अपमान किया है ! हृदय चाहे जितना व्यथित हो–कष्ट चाहे जितना अाकर पड़े ; परन्तु कर्मचक्र चलता ही रहता है-संसारके काम-काज बन्द नहीं होते । सदाकी नाई भूखके लिए आहार, पहरनेको कपड़े, और तो क्या चूल्हेके लिए इंधन और जूतोंके लिए फीते तक, पूरे उद्योगके साथ संग्रह किये बिना काम नहीं चलता। ___ यदि कभी काम-काजसे फुरसत पाकर मैं घरमें अकेला पाकर बैठता तो बीचबीचमें वही करुण-कण्ठका प्रश्न कानके पास आकर
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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