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________________ जासूस ८३ बोला-भाई माफ करो, आज मेरे पाक-यंत्रकी अवस्था बहुत ही शोचनीय है । परन्तु इसके पहले मैंने कभी किसी कारणसे मन्मथको होटलके भोजनसे इनकार करते नहीं देखा था-तब श्राज निश्चय ही उसकी अन्तरिन्द्रिय नितान्त दुरूह अवस्थाको प्राप्त हो गई है। ____ उस दिन यह निश्चय हो चुका था कि मैं सन्ध्याके समय डेरे पर न रहूँगा ; किन्तु मैंने गले पड़कर इस तरहकी बातोंका सिलसिला जारी कर दिया कि शाम हो आई, तो भी वे समाप्त न हुई; समय टलने लगा। तो भी जब मैंने वहाँसे खिसकनेका कोई लक्षण प्रकट नहीं किया, तब मन्मथ मन ही मन अस्थिर हो उठा । मेरी सभी बातोंमें वह सम्मतिसूचक रूपसे. गर्दन हिलाता गया-किसी बातका उसने कोई प्रतिवाद नहीं किया । आखिर घड़ीकी श्रोर दृष्टिपात करके वह व्याकुल हो उठा और उठकर बोला- क्या आज श्राप हरिमतिको लेने नहीं जायँगे ? मैंने तत्काल ही चौंककर कहा-हाँ हाँ, यह तो मैं भूल ही गया था । अच्छा तो मैं जाता हूँ। तब तक तुम आहारादि तैयार कर रखना । मैं उसे यहाँ ठीक साढ़े दस बजे लाकर उपस्थित कर दूंगा। यह कहकर मैं वहाँसे चल दिया। आनन्दका नशा मेरे सारे शरीरके रक्तमें संचरण करने लगा। संध्याको सात बजेके प्रति मन्मथकी जितनी उत्सुकता हो रही थी, मेरी उत्सुकता भी उससे कम नहीं थी। में अपने डेरेके करीब ही एक जगह छिपकर रह गया और प्रेयसी-समागमोत्कण्ठित प्रणयीके समान बार-बार अपनी घड़ीकी ओर देखने लगा । जब गोधूलिका अन्धकार सघन होने लगा और सड़कोंके लैम्प जलनेका समय हो गया, तब एक परदेदार पालकीने हमारे डेरेमें प्रवेश किया । यह कल्पना करके मेरे सारे शरीरमें रोमाञ्च हो आया कि इस आच्छन्न पालकीके भीतर आँसुओंसे भीगा हुआ एक अवगुण्ठित पाप, एक मूर्तिमती ट्रेजिडी, विराज
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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