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________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज निर्जन कमरेमें अकेला रहता है, उसके लिए एकान्त स्थानकी बहुत बड़ी जरूरत है। हम लोगोंने उसके कमरेमें अपना अड्डा जमाकर उसकी निर्जनताका भङ्ग कर दिया है और एक रमणीकी अवतारणा करके एक नया उपद्रव खड़ा कर दिया है। इतना होनेपर भी वह नाराज नहीं होता, कमरा नहीं छोड़ता, हम लोगोंकी संगतिसे दूर नहीं भागता । साथ ही यह भी निश्चय है कि हरिमति अथवा मेरे प्रति उसके हृदयमें तिल-भर भी आसक्ति उत्पन्न नहीं हुई है, यहाँ तक कि उसकी असावधानीके समय मैंने बारबार लक्ष्य करके देखा है कि हम दोनोंके प्रति उसकी आन्तरिक घृणा बढ़ती ही जाती है। यह सब क्या है ? इसका एक मात्र तात्पर्य यही है कि यदि स-जनताकी सफाई पेश करके निर्जनताके सुभीतेसे लाभ उठाना हो, तो इसका सबसे अच्छा उपाय यही है कि मेरे जैसे नवपरिचित श्रादमीको पास रख लिया जाय । और फिर किसी विषयमें जी-जानसे लग जानेके लिए रमणीके समान सहज बहाना और कोई नहीं है। अभी तक मन्मथका आचरण जैसा निरर्थक और सन्देहजनक था, हम लोगोंके आगमनके बाद वह वैसा नहीं रहा । निरर्थकता और सन्देहका अंश उसमेंसे सर्वथा लुप्त हो गया । परन्तु यह सोचकर मेरा हृदय उत्साहसे भर गया कि हमारे देशमें भी इतना बड़ा चुस्त चालाक और प्रत्युत्पन्नमति श्रादमी जन्म ले सकता है, जो इतनी दूरकी बात पलक मारते ही सोच लेता है। इस उत्साहके आवेशमें मैं भन्मथको गले लगाये बिना न रहता, यदि मुझे यह खयाल न होता कि वह न जाने क्या सोचेगा। ___उस दिन मन्मथसे मुलाकात होते ही मैंने कहा-मैंने निश्चय किया है कि आज शामको सात बजे तुम्हें होटलमें ले चलकर खाना खिलाऊँ । यह सुनते ही वह चौंक-सा पड़ा, परन्तु तत्काल ही आत्म-संवरण करके
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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