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________________ ६८ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज श्रागे और क्या लिखा जाय सो कुछ नहीं सोच सकी । यद्यपि मतलबकी बातें सभी लिखी जा चुकी थीं ; परन्तु मनुष्य-समाजमें मनका भाव कुछ और विस्तारके साथ प्रकाश करनेकी आवश्यकता होती है। यह बात मृण्मयीकी समझमें भी आ गई, इस लिए उसने और भी कुछ समय तक सोच साचकर कितनी ही नई बातें और जोड़ दीं"अबकी बार तुम मुझे चिट्ठी लिखो, और कैसे हो सो भी लिखो, और घर आयो । माँ अच्छी हैं । विशू अच्छी है । कल हमारी काली गैयाको बछड़ा हुआ है।" इतना लिखकर चिट्ठी समाप्त कर दी। चिट्ठीको मोड़कर लिफाफेमें रक्खा और प्रत्येक अक्षरके ऊपर हार्दिक प्यारका एक एक बिन्दु डालकर लिखा-"श्रीयुक्त बाबू अपूर्वकृष्ण राय ।" प्यार चाहे जितना दिया हो, तो भी लाइनें सीधी, अक्षर साफ और हिज्जे शुद्ध नहीं हुई। मृण्मयीको यह मालूम न था कि लिफाफेके ऊपर नामके सिवा और भी कुछ लिखा जाता है। कहीं सास या और किसीकी नजर न पड़ जाय, इस लज्जासे उसने एक विश्वस्त दासीके हाथ चिट्ठी डाकमें डलवा दी। कहने की जरूरत नहीं कि इस पत्रका कोई फल नहीं हुआ, अपूर्वकृष्ण घर नहीं आये। छुट्टियाँ हो गईं, फिर भी अपूर्व घर नहीं आये । इससे माताने समझा कि वह अभी तक मुझसे नाराज है। मृण्मयीने भी यही निश्चय किया कि वे मुझपर नाराज हैं। तब अपनी चिट्ठीका स्मरण करके वह लाजसे गड़ी जाने लगी। वह चिट्ठी कितनी छोटी थी, उसमें कुछ भी नहीं लिखा गया, उसमें मेरे मनका
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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