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________________ समाप्ति एक उसे वही तालाब, वही रास्ता, वही तरुतल, वही प्रभातकी धूप और वही हृदयके बोझेसे ढकी हुई गंभीर दृष्टि याद आ गई और उसका सारा अभिप्राय उसकी समझमें श्रा गया। इसके बाद, उस बिदाईके दिनका वह असम्पूर्ण चुम्बन-जो अपूर्वके मुँहकी ओर अग्रसर होकर लौट आया था-इस समय मरुमरीचिकाभिमुख प्यासे पक्षीकी तरह उसी बीते हुए अवसरकी अोर दौड़ने लगा, किसी तरह उसकी प्यास नहीं मिटी। अब रह रहकर केवल यही मनमें आने लगा कि हाय यदि अमुक समयपर मैं ऐसा करती, अमुक प्रश्नका यदि यह उत्तर देती, उस समय यदि ऐसा होता, श्रादि । अपूर्वके मनमें इस कारण क्षोभ हुआ था कि मृण्मयीने मुझे अच्छी तरह नहीं पहचाना । मृण्मयी भी आज बैठी बैठी सोचती है कि उन्होंने मुझे क्या समझा और क्या समझकर वे चले गये। अपूर्वने उसे दुरन्त चपल, अविवेकिनी और निर्बोध बालिका समझा, परिपूर्ण हृदयामृतधारासे प्रेमकी प्यास बुझाने में समर्थ रमणी नहीं जाना । इसीसे वह परिताप, लज्जा और धिक्कारसे पीड़ित होने लगी । चुम्बन और सुहागके उन ऋणोंको वह अपूर्व के सिरहानेके तकियोंके ऊपर चुकाने लगी। इस तरह कितने ही दिन बीत गये। ___ अपूर्व कह गये थे कि जब तक तुम चिट्ठी नहीं लिखोगी, मैं घर नहीं आऊँगा। इसी बातको स्मरण करके मृण्मयी एक दिन घरके किवाड़ लगाकर चिट्ठी लिखने बैठी। अपूर्व उसे जो सुनहली कोरके रंगीन कागज दे गये थे, उन्हींको निकालकर वह सोचने लगी कि क्या लिखू और कैसे लिखू । कागज और कलमको खूब जोरसे पकड़कर, टेढ़ी लाइनें खींचकर, उँगलियोंमें स्याही पोतकर, अक्षरोंको छोटा बड़ा बनाकर, ऊपर कोई भी सम्बोधन न लिखकर उसने लिखा, "तुम मुझे चिट्ठी क्यों नहीं लिखते ? तुम्हारी तबीयत कैसी है ? और तुम घर पाओ।" इसके
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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