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________________ • समाप्ति अोर न जाने कितने ग्राम, बाजार, खेत और वन पर्वत आदि और इधर उधर न जाने कितनी नावें आती जाती दिखाई पड़ी । मृण्मयी जरा जरा-सी बातपर अपने पतिसे हजारों प्रश्न करने लगी । उस नावपर कौन हैं, वे लोग कहाँसे आये हैं, कहाँ जायँगे, इस जगहको क्या कहते हैं, इत्यादि । इन सब प्रश्नोंका उत्तर देना सहज न था; क्योंकि अपूर्वने उन्हें न तो अपने किसी पाठ्य-ग्रन्थमें पढ़ा था और न उनकी कलकत्तेकी अभिज्ञता ही उनका समाधान कर सकती थी। अपूर्वके मित्रोंको सुनकर लजा होगी कि उन्होंने उक्त सभी प्रश्नोंके जो उत्तर दिये, उनमेंसे अधिकांश उत्तर सत्यतासे बहुत कम सम्बन्ध रखते थे। उन्हें तिलोंसे भरी हुई नावको अलसीकी नाव, कंगाल गाँवको रायनगर और मुन्सिफकी अदालतको जमींदारकी कचहरी बतलाने में जरा भी संकोच न हुा । परन्तु उनके ऐसे उत्तरोंसे विश्वासवती प्रश्नकारिणीके सन्तोष तिलभर भी बाधा न पड़ी। दूसरे दिन शामको यह नाव कुशीगंज पहुँच गई । ईशानबाबू टीनके एक छप्परके नीचे, स्टूलपर बैठे हुए हिसाब लिख रहे थे। उनके सामने एक छोटा-सा टेबुल था और उसपर एक मैली कुचैली लालटेनमें मिट्टीका तेल जल रहा था। धोतीके सिवा उनके शरीरपर और कोई वस्त्र न था। इसी समय इस नवदम्पतिने ईशानबाबूके आफिसमें प्रवेश किया। मृण्मयीने कहा-बाबूजी ! इसके पहले उस स्थानपर ऐसी कण्ठध्वनि कभी नहीं सुनी गई थी। ईशानकी आँखोंसे टपाटप आँसू गिरने लगे। उस समय वे निश्चय न कर सके कि मुझे क्या करना चाहिए । साम्राज्यके युवराजके समान दामाद और युवराज्ञीके समान बेटीके लिए, वहाँ पड़े हुए पाटके गट्ठोंके बीचमें सोनेका सिंहासन कैसे बनाया जाय, इसका उत्तर उनकी कुण्ठित बुद्धि न दे सकी।
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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