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________________ राजतिलक ३९ - - इस प्रचुर परिहासकी पिचकारीसे नवेन्दुबाबूके नाक, मुख और नेत्र सब शराबोर हो गये। उन्होंने कुछ चुण्ण होकर कहा-क्या आप यह समझ रही हैं।कि मैं प्रतिवाद करनेसे डरता हूँ? __ लावण्यने कहा-सो क्यों समदूंगी ! मैं सोचती हूँ कि तुम अपनी बड़ी बड़ी आशाओं और भरोसेके स्थल उस घुड़दौड़के मैदानको बचानेकी चेष्टा अब भी नहीं छोड़ रहे हो ; और यह ठीक भी है-जब तक स्वासा तब तक आशा ! ___नवेन्दुने कहा-मैं शायद इसी लिए नहीं लिख रहा हूँ ! इसके बाद बहुत गरम होकर वे दावात कलम लेकर बैठ गये । परन्तु उन्होंने जो कुछ लिखा उसमें क्रोधकी ललाई फीकी ही रह गई, इस कारण उसके संशोधनका भार लावण्य और नीलरतनको लेना पड़ा । पूरी बनानेकी बारी आनेपर नवेन्दुबाबू जिन पूरियोंको जल और घृतमें ठंडी ठंडी और नरम नरम करके और दबाकर यथासाध्य चपटी करके बेल देते थे, उनको उनके दोनों सहकारी तत्काल ही तलकर कड़ी और गरम करके फुला देते थे। ठीक यही दशा उनके लेखकी भी हुई । उसमें लिखा गया कि आत्मीय जन जब शत्रु हो जाते हैं, तब वे बहिःशत्रुकी अपेक्षा अधिक भयंकर होते हैं। पठान और रूसी लोग भारत-सरकारके वैसे शत्रु नहीं हैं जैसे गर्वोद्धत एंग्लो-इंडियन । सरकार और प्रजाके बीच निरापद मित्रता होने देनेमें ये ही सबसे बड़े अन्तराय हैं। कांग्रेसने राजा और प्रजाके बीच स्थायी सद्भाव-साधनका जो प्रशस्त राज-पथ खोल रक्खा है, एंग्लोइंडियन पेपर उसके बीच काँटे बिखेर रहे हैं । इत्यादि । नवेन्दु भीतर ही भीतर कुछ भयभीत हुए, परन्तु यह सोचकर कि लेख बहुत अच्छा लिखा गया है, रह रहकर उन्हें कुछ अानन्द भी आने लगा । यह बात उनकी शक्तिसे बाहर थी कि वे ऐसी सुन्दर रचना कर सकते।
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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