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________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज बाबू नवेन्दुशेखरमें काफी योग्यता और मौलिकता है, वे बेकार उम्मेदवार और मवक्किलशून्य वकील नहीं हैं। वे उस ढंगके आदमी भी नहीं हैं जो कुछ दिनों विलायतकी हवाखोरी करके, और उसके प्रभावसे अपनी वेशभूषा और प्राचार-व्यवहारमें अद्भुत कपिवृत्तिको स्थान देकर स्पर्धाके साथ अँगरेज़ समाजमें प्रवेशोद्यत होते हैं और अन्तमें धक्के खाकर हताश हो बैठते हैं। ऐसी दशामें वे ऐसा क्यों करेंगे ?...इत्यादि इत्यादि। ___ हाय परलोकगत पिता पूर्णेन्दुशेखर ! तुमने अँगरेजोंके निकट इतना अधिक नाम और विश्वास कमाकर परलोकगमन किया था ! ___ यह चिट्ठी भी मयूरपुच्छके समान फैलाकर सालीके सामने उपस्थित करने योग्य थी। इसमें एक बहुत ही महत्त्वकी बात लिखी थी कि नवेन्दुवाबू कोई अप्रसिद्ध अकिञ्चन अभागे आदमी नहीं हैं, वे एक सारवान् और पदार्थवान् सज्जन हैं ! ___ लावण्यने मानो आसमानसे जमीनपर गिरकर कहा-अबकी बार यह तुम्हारे किस परम मित्रने लिखनेकी कृपा की ? किसी टिकट कलेक्टरने ? किसी चमड़ेके दलालने या किसी बैंडबाजेके मैनेजरने ? । __नीलरतनने कहा-आपको उचित है कि इस चिट्ठीका एक प्रतिवाद प्रकाशित कर दें। ___ नवेन्दुने कहा-जरूरत ही क्या है ! क्या मैंने ठेका ले रक्खा है कि जो कुछ मेरे विषय में लिखा जाय, उस सबका मैं प्रतिवाद करता फिरूँ ? लावण्यने बड़े जोरसे हँसीका एक फुहारा छोड़ दिया । नवेन्दुने अप्रतिभ होकर कहा-इसमें हँसीकी क्या बात है ? उत्तरमें लावण्य फिर बड़े जोरसे हँसी और हँसते हँसते उसकी पुष्पित-यौवना देहलता जमीनपर लोटने लगी।
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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