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________________ ३० रवीन्द्र-कथाकुन लपनको आकार देकर बड़ी भारी गड़बड़ मचाती हुई प्रबल आवेगके साथ बिना किसी उद्देश्य के बही जाती थी। बड़े तड़के नदीके किनारे टहलते समय शीत-प्रभातकी स्निग्ध धूप मानो प्रिय-मिलनके उत्तापके समान उनके सारे शरीरको चरितार्थ कर देती । इसके बाद वापस लौट आनेपर सालीके रसोई बनानेके कार्य में सहायता देनेका भार लेकर नवेन्दुबाबू अपनी अज्ञता और अनिपुणता पद पद पर प्रकाशित किया करते । परन्तु इस मूढ़ अनभिज्ञका इस विषयमें जरा भी आग्रह नहीं देखा गया कि अभ्यास और मनोयोगके द्वारा अपनी त्रुटियोंका संशोधन किया जाय । प्रतिदिन अपनेको दोषी बनाकर वे जो झिड़कियाँ और ताड़नाएँ प्राप्त करते थे, उनसे उनको जरा भी तृप्ति नहीं होती। जितना चाहिए उतना मसाला डालने, चूल्हेपरसे बरतन उतारने चढ़ाने, ज्यादा आँचसे भोजन जल न जाय इसकी सावधानी रखने आदि कामों में वे अपनेको जान बूझकर छोटेसे बच्चे के समान अपटु, अक्षम और निरुपाय सिद्ध करते ; और इससे अपनी सालीकी कृपामिश्रित हँसी और हँसीमिश्रित झिड़कियोंका सुख भोगते । __दोपहरको, एक अोर भूखकी ताड़ना, दूसरी ओर सालीकी जबदस्ती, अपना अाग्रह और प्रियजनका औत्सुक्य, रसोईकी विशेषताएँ और रसोई बनानेवालीकी सेवा-मधुरता ; इन सबके संयोगसे भोजनका परिमाण ठीक बनाये रखना उनके लिए कठिन हो जाता । अाहारके बाद मामूली ताश खेलने में भी नवेन्दुबाबू अपनी प्रतिभाका परिचय नहीं दे सकते । उसमें भी वे चोरी करते, हाथके पत्ते देख लेते, खींचातानी और बकझक करते ; तो भी जीत नहीं सकते । न जीतने पर भी जबर्दस्ती अपनी हार अस्वीकार करते और इसके लिए प्रति दिन उनकी बड़ी ही भद्द होती । तो भी वे अपनी भूल सुधारनेकी जरा भी कोशिश न करते।
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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