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________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm भी उसी तरह बीच बीचमें अपने पड़ोसके घरकी खिड़कीकी श्रोर ताका करता और कभी कभी भक्तका वह व्याकुल दृष्टिक्षेप सार्थक भी हो जाया करता । उस कर्मयोगनिरता ब्रह्मचारिणीकी सौम्य मुखश्रीसे शान्त और स्निग्ध ज्योति प्रतिबिम्बित होकर मुहूर्त मात्रमें मेरे सारे चित्तक्षोभको मिटा देती। किन्तु उस दिन एकाएक मैंने क्या देखा ! हमारे चन्द्रलोकमें भी क्या इस समय अग्न्युत्पात मौजूद है ? क्या वहाँकी जनशून्य समाधिमन गिरिगुहाओंका सारा वह्निदाह अब भी शान्त नहीं हुआ है ? ___ उस दिन वैसाख महीनेके तीसरे प्रहर ईशान कोणमें मेघ सघन हो रहे थे । आँधी आनेको थी और बीच बीचमें बिजली चमक जाती थी। मेरी पड़ोसिन खिड़कीके पास अकेली खड़ी थी। उस दिन मैंने उसकी आकाशकी ओर लगी हुई दृष्टिमें, दूर तक फैली हुई सघन वेदनाका दर्शन किया। मुझे निश्चय हो गया कि मेरे चन्द्रलोकमें इस समय भी उत्ताप है । इस समय भी वहाँ उष्ण निःश्वास समीरित है। देवताके लिए मनुष्य नहीं है, मनुष्यके लिए ही देवता है। उसके उन दोनों नेत्रोंकी विशाल व्याकुलता उस दिनकी आँधीसे घबराये हुए पक्षीकी तरह उड़ी जा रही है। किधर ? स्वर्गकी अोर नहीं, मनुष्य के हृदयरूपी घोंसलेकी ओर। उत्सुक और आकांक्षासे उद्दीप्त वह दृष्टिपात देखने के बाद मेरे लिए अपने अशान्त चित्तको सुस्थिर रख सकना कठिन हो गया। उस समय केवल दूसरेकी कच्ची कविताका संशोधन करनेसे तृप्ति नहीं मिली, किसी न किसी तरहका कोई काम करनेको जी चाहा । तब मैंने संकल्प किया कि अपने देशमें विधवाविवाह प्रचलित
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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