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________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज रुक कर नहीं रहना चाहता। वह किसी न किसी उपाय से बाहर निकलनेकी चेष्टा करता है और यदि इस चेष्टामें सफल नहीं होता तो छातीमें वेदना उत्पन्न करता है। इसीसे मैं सोचता था कि अपने आवेगके भावको कवितामें प्रकाशित करूँ। परन्तु क्या कहूँ, कुण्ठिता लेखनीने आगे बढ़नेकी इच्छा ही नहीं की। ___ठीक इसी समय एक आश्चर्यकी बात यह हुई कि मेरा मित्र नवीन माधव जिस तरह एकाएक भूकम्प श्रा जाता है उस तरह तेजीके साथ कविता करनेमें प्रवृत्त हो गया। इसके पहले उस बेचारेपर ऐसी दैवी विपत्ति कभी न आई थी ; और इसलिए वह इस अभिनव आन्दोलनके लिए जरा भी तैयार न था। यह देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि न उसे छन्दका ज्ञान है और न तुकबन्दीका ; फिर भी उसे हिचकिचाहट नहीं हुई । कविता मानो बुढ़ापेकी दूसरे ब्याहकी स्त्रीके समान उसके सिर चढ़ बैठी । आखिर वह सहायता और संशोधन के लिए मेरी सेवामें उपस्थित हुआ। ___ उसकी कविताके विषय नये नहीं थे, पर पुराने भी नहीं थे । अर्थात् उन्हें चिरनूतन भी कह सकते हैं और चिरपुरातन कहनेमें भी कोई हानि नहीं है। जब मैंने देखा कि वह एक प्रियतमाके प्रति लिखी हुई प्रेमकी कविता है, तब मैंने उसे एक धक्का दे हँसकर पूछा-बतलाओ तो कि वह है कौन ? नवीनने हँसकर कहा-अब तक तो कुछ पता नहीं चला है । नवीनको सहायता देनेके कार्य में मुझे बहुत ही आराम मिला। उसकी काल्पनिक प्रियतमाके प्रति मैं अपने रुके हुए आवेगका प्रयोग करने लगा । जिस तरह बिना बच्चेवाली मुर्गी हंसके अंडे पाकर छाती फैलाकर उन्हें सेने लगती है, उसी तरह मैं भी नवीन माधवके भावोंको
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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