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________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज तुम सती हो । तुम अपने हाथोंसे मेरा और अपने बहनोई का हाथ पकड़कर हम दोनोंको आशीर्वाद दो । उनसे लज्जा करनेसे काम नहीं • चलेगा। यदि तुम आज्ञा दो, तो मैं उन्हें यहाँ ले आऊँ । मैंने कहा-ले आओ। थोड़ी देर बाद मुझे फिर अपने कमरेमें किसीके आनेकी आहट "सुनाई पड़ी । किसीने स्नेहपूर्वक मुझसे पूछा-कुम्, अच्छी तरह हो ? ___मैं घबराकर उठ खड़ी हुई और पैरोंके पास प्रणाम करती हुई - बोली-हाँ भइया। हेमांगिनीने कहा-भइया किस बातके ? ये तो तुम्हारे छोटे बहनोई न हैं ! अब सब बातें मेरी समझमें भा गईं । मैं जानती थी कि मेरे भइयाने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं कभी विवाह न करूँगा । मेरी माँ तो थी ही नहीं; तब अनुनय और अनुरोध करके कौन उनका ब्याह कराता ! इसलिए इस समय मैंने ही उनका ब्याह करा दिया। मेरी दोनों आँखोंसे झर झर आँसू बहने लगे। वे किसी प्रकार रोके रुकते ही न थे । भइया धीरे धीरे मेरे सिरपर हाथ फेरने लगे। हेमांगिनी मुझसे लिपटकर केवल हँस रही थी। रातके समय मुझे नींद नहीं पा रही थी। मैं बहुत ही उत्कण्ठित चित्तसे अपना स्वामीके लौटनेकी प्रतीक्षा कर रही थी। मैं कुछ भी स्थिर नहीं कर सकती थी कि वे इस लज्जा और निराशासे अपने आपको किस प्रकार सँभाल सकेंगे। बहुत रात बीतने पर धीरे धीरे किवाड़ खुले । मैं चौंककर उठ
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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