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________________ अध्यापक १८७ समय लोग दरवाजा तोड़कर उस कोठरी में आये, उस समय मैं बेहोश पड़ी थी। जब मेरी मूर्छा टूटी, तब मैंने सुना - 'बहन !' मैंने देखा कि मैं हेमांगिनीकी गोदीमें सोई हुई हूँ। सिर हिलाते ही उसकी नई रेशमी साड़ी खस खस शब्द करने लगी। मैंने समझ लिया कि उसका विवाह हो गया । मैंने मन ही मन कहा – हे परमेश्वर ! तुमने मेरी प्रार्थना नहीं सुनी, मेरे स्वामीका पतन हो गया । हेमांगीने सिर काकर धीरेसे कहा- बहन, मैं तुमसे आशीर्वाद लेनेके लिए आई हूँ । पहले तो क्षण-भर के लिए मानो मैं काठ हो गई; पर फिर तुरन्त ही सँभलकर उठ बैठी और बोली- भला बहन, मैं तुम्हें आशीर्वाद क्यों न दूँगी ! इसमें तुम्हारा अपराध ही क्या है ! हेमांगिनी अपने सुमिष्ट उच्च स्वरमें हँस पड़ी और बोली--अपराध ! क्यों जी, जब तुमने ब्याह किया, तब तो कोई अपराध नहीं हुआ और मैंने किया, तो अपराध हो गया ! -- हेमांगिनीको जोर से गलेसे लगाकर मैं भी हँस पड़ी। मैंने मन ही मन कहा- - क्या संसार में मेरी प्रार्थना ही सबसे बढ़कर है ? क्या उनकी इच्छा उससे भी बढ़कर नहीं है ? जो श्राघात पड़ रहा है, वह मेरे ही सिरपर पड़े । पर मैं उस श्राघातको अपने हृदय के उस स्थानपर नहीं पड़ने दूँगी, जहाँ मेरा धर्म और मेरा विश्वास है । मैं जैसी थी, वैसी ही रहूँगी । हेमांगिनीने मेरे पैरोंपर गिरकर मेरी पद- धूलि ली । मैंने कहा -- तुम सदा सौभाग्यवती रहो, सदा सुखी रहो ! हेमांगिनी ने कहा - केवल इस आशीर्वादसे ही काम नहीं चलेगा ।
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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